Saturday, March 26, 2011

विडम्बना

गुम होते बैल, विलुप्त होती बैलगाड़ियां

  • एम अफसर खान सागर

आज भले ही हम तेजी से विकास पथ पर अग्रसर हैं, जो काबिले तारीफ भी है पर सृष्टि के गूढ़ रहस्यों को की खोज में हम कहीं न कहीं अपनी प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। आधुनिकता के इस दौड़ में हम मुंशी प्रेमचन्द के हीरा-मोती की जोड़ी के साथ प्राचीन भारतीय परिवहन व्यवस्था की रीढ़ रही बैलगाड़ी को भी खोते जा रहे हैं।
होर्रे.... होर, आवा राजा बायें दबा के। ना होर ना। शाबाश... चला झार के। बाह रे बायां... बंगड़ई नाही रे। अरे... अरे देही घुमा के सोटा। जीआ हमार लाल, खट ला; खट ला आज से खोराक बढ़ी। आज जो पचास से उपर हैं वो जानते हैं कि बैलगाड़ी हांकना और घोड़े की लगाम थामने में वही अन्तर था जो आज कार व बस को चलाने में है। यही नहीं चूंकि उनके अन्दर भी आत्मा थी, अतः इस दौरान उनसे उपरोक्त संवाद भी करने में कामयाब थे। चढ़ाई, ढ़लान व मोड पर महज बागडोर से नहीं बल्कि संवाद से भी गाइड किये जाते थे बैल। इन पर साहित्यकारों व कवियों ने भी खूब कलम चलाया है।
एक दौर था कि गांवों में दरवाजों पर बंधे अच्छे नस्ल के गाय-बैलों और उनकी तंदुरूस्ती से ही बड़े कास्तकारों की पहचान होती थी। प्राचीन भारतीय संस्कृति इसकी साक्षात गवाह है कि कृष्ण युग से ही पशुधन सदा से हमारे स्टेटस सिम्बल रहे हैं। बदलते परिवेश में हम इतने अति आधुनिक हो गये हैं कि कृषि में कीटनाशकों व रसायनों का जहर घोल दिया है जिसकी फलस्वरूप हमें जैविक रसायनों की तरफ फिर से लौटना पड़ रहा है। हमें खुद व अपनी मिट्टी को स्वस्थ रखने के लिए गोबर चाहिए, इसकी खातिर कृषि वैज्ञानिक किसानों को वर्मी कम्पोस्ट बनाने की कला गांव-गांव घूमकर सिखा रहे हैं। एक दौर था कि जुताई करते बैलों से स्वमेव खेतों को गोबर मिल जाया करता था। खेतों में कार्य करते बैलों को उकसाते हुए किसान कहते कि आज खोराक बढ़ी बेटा, जो नेताओं के कोरे आश्वासन नहीं होते थे बल्कि घर वापसी के बाद बैलों को चारा-पानी देने के बाद ही किसान भोजन करते। बदले में इन प्राकृतिक संसाधनों से पर्यावरण सम्बन्धी कोई समसया भी नहीं होती। उस वक्त हम प्रकृति के बेहद करीब थे तथा गवईं समाज में हर-जुआठ, हेंगी-पैना जैसे अनेकों शब्दों का प्रयोग आम था। तमाम कहावते व मुहावरे प्रचलित थीं गांगू क हेंगा भयल बाड़ा, खांगल बैले हो गइला का आदि।
कितना हसीन दौर था जब हीरा मोती की जोड़ी खेतों के साथ रोड़ की भी शान हुआ करती थी। एक से एक डिजाइनर बैलगाड़िया होती थीं जिनपर लोग गर्व पूर्वक सवारी करते थे। वहीं मालवाहक बैलगाड़ियां बेहद मजबूत व बड़ी होती थीं। यही बैलगाड़ियां प्राचीन भारतीय परिवहन व्यवस्था की रीढ़ मानी जाती थीं। बकायदे एक तबका इससे जुड़ कर अपना व पूरे परिवार का भरण-पोषण करता था। हमारी विकास की दौड़ काफी तेज हो गई है कि हमारे पास इतना मौका नहीं है कि इसकी दिशा व दशा सही भी है या नहीं। निःसन्देह हमने बहुत तेजी से विकास किया है मगर इसकी दशा व दिशा निर्धारित करने में आज भी हम चूक रहे हैं।

यह कैसा विरोधाभाष है कि आज गोबर की महत्ता महसूस की जा रहा है जबकि बैलों, गायों आदि पालतू जानवरों को बूचड़खानों की जीनत बनाया जा रहा है। यदा-कदा खेतों या मण्डियों में जो बैलों की जोड़ियां बैलगाड़ी या हरों में देखने को मिल भी जा ते हैं तो उनमें भी जुते बैल मरकटेल ही रहते हैं। अगर हालत यूं ही रहे तो क्या बैलगाड़ियां और बैलों की जोड़ियां देखने को मिल पायेंगी? रामनिहोर 75 ‘‘पहिले वाला जमाना गईल साहब, अब सगरों टरक, टेक्टर हो गइल बा। बस भूसा बचल बा, उहे ढोवे के मिल जाला कबहू-कभार नाहीं त बैलन क खोराक डाढ बा।’’ ऐसे में वो भी क्यों नही छोड देते बैल हांकना? ‘‘साहब, पुरखा-पुरनिया क निशानी बा, बस हमरहीं तक बचल बा चल रहल बा नाहीं त खतमे मान के चलीं।’’
वक्ती थपेड़ों से दो-चार बैलगाड़ी स्वामी बस बुजूर्गों की निशानी मान कर इसे जीवित रखे हुए हैं वर्ना आगाती पीढ़ी कब की बैलगाड़ी की थमती रफतार को भूला चुका होता। कार की रफतार के सामने बैलगाड़ी का रफतार मन्द पड़ चुकी है। टैक्टर ने बैलों की हरवाही छीन लिया है। पशु तस्करी व मांस के ग्लोबल बिजनेस ने बैलों को असमय काल के गाल में ढ़केल दिया है। कभी कुन्तलों वजन लादकर शान से चलती बैलों की जोड़ी आज खुद पशुतस्करों के टकों में ठुंसी लाचार आंखें से जान की भीख मांगती नजर आती हैं। आधुनिक परिवहन के संसाधनों की प्रदूषित गैसों ने जहां लोगों को रोगग्रस्त कर पर्यावरण का बन्टाधार किया है वहीं बैलों की टूटती परम्परा ने खेतों को रासायनिक खादों की तपती ज्वर में झोंक दिया है जिसने व्यक्ति के स्वास्थ को दीमक की तरह चाट कर जिन्दा लाश बना दिया है।
अगर वक्त रहते हम ना सम्हलें तो बैलगाड़ी वक्त के ओराक बन जायेंगे। साथ में भगवान शिव की सवारी भी इतिहास के पन्नों में दफन हो जायेगी। वह वक्त भी आपे वाला है कि बैलों को देखने के लिए हमें चिड़िया घरों की जानिब रूख करना होगा। आने वाली नस्लों को बैल व बैलगाड़ी दिखाने के लिए किताबों व मुंशी प्रमचन्द के हीरा-मोती का दर्शन कल्पना के सहारे करना होगा।

Thursday, March 24, 2011

शहरनामा

ग़ाज़ीयों और गुलाबों का शहर ग़ाज़ीपुर
  • एम अफसर खान सागर

वीर अब्दुल हमीद और वीर अब्दुल हमीद सेतु, गाजीपुर।

पवित्र गंगा नदी के तट पर बसा गाजीपुर गंगा-जमुनी तहजीब को समेटे उत्तर प्रदेश में अपना अलग पहचान रखता है। ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक व्यावसायिक नजरिये से यह शहर किसी पहचान का मोहताज नहीं। इस शहर का गुलाब, नील अफीम विश्व प्रसिद्ध है। तारीख गवाह है कि धर्म के नाम पर यहां कभी दंगा-फसाद नहीं हुआ। ग़ाजियों कर शहर गाजीपुर पूरे भारत में अपनी बहादुरी के लिए प्राचीन काल से ही जाना जाता है। चीनी यात्री हवेनसांग ने अपनेयात्रा-वृतान्तमें गाजीपुर को चिन-चू यानि बहादुरों का देश बताया है। वीरता का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र भी गाजीपुर के चौड़े सीने पर टंका चम-चमा रहा है।
गाजीपुर की धरती की टोकरी इतिहास के विभिन्न रंग के फूलों से भरा पड़ा है। वैदिक युग से आधुनिक युग के अनेकों ऐतिहासिक साक्ष्य गाजीपुर में बिखरे पड़े हैं। ऐसा माना जाता है कि महान संत महर्षि गाधि के नाम पर इस शहर का नाम पड़ा। जबकि दूसरा तथ्य है कि अमीर सैयद मसउद बिन जलालुददीन के मुल्कुस्सादात ग़ाजी उपाधि धारण करने के बाद गाजीपुर नाम पड़ा। इस बात का जिक्र अंग्रेज इतिहासकार विल्टन ओल्ढ़म ने अपनी पुस्तकमेमायर्ज ऑफ गाजीपुरमें लिखा है कि ‘‘गाजीपुर का नाम अमीर सैयद मसउद बिन जलालुद्दीन केमुल्कुस्सादात गाजीउपाधि को चिरस्मरणीय रखने के लिए सन् 1330 0 में गाजीपुर नगर की बुनियाद रखी।’’ इतिहासकार डा0 अवध नारायण सिंह ने अपनी पुस्तकगाजीपुर जनपद का इतिहास की दृष्टि मेंलिखा है कि ‘‘सन् 1330 0 में सैयद मसउद ने राजा मानधता अैर उसके भतीजे को युद्ध में पराजित किया और उस वर्ष वर्तमान शहर की स्थापना की। प्रसन्न होकर बादशाह फिरोज शाह ने उसेमुल्कुस्सादात गाजीकी उपाधि प्रदान किया और जिसके नाम पर शहर का नाम पड़ा। गाजी के माने बकादुर होता है।

पी.जी.कालेज, गाजीपुर

यह शहर हर तरह से एक पूर्ण शहर है। रेलवे स्टेशन, बस अड्डा, हवाई पट्टी, नौकायें परिवहन की रीढ़ हैं तो पी. जी. कालेज, होम्योपैथिक मेडिकल कालेज, आई. टी. आई. माध्यमिक विद्यालयों के साथ प्राथमिक टेक्निकल प्रशिक्षण सेन्टर शिक्षा के रीढ़। अफीम फैक्टरी, फसल सब्जी उत्पादन के साथ कल-कारखाने व्यावसायिक प्रतिष्ठान आर्थिक व्यवस्था के सुतून। यह शहर आज तक अनेकों गैंगवार का चश्मदीद जरूर बना है मगर किसी धार्मिक दंगे का गवाह नहीं। आज भी यह शहर अपने गंगा-जमुनि तहजीब के लिए विख्यात है।
गाजीपुर का इतिहास बेहद गौरवशाली रहा है। फाहयान, हवेनसांग, हुमायूं, बाबर, अकबर, तानसेन, शाहजहां, सर सैयद अहमद खां, रविन्द्र नाथ टैगोर, कार्नवालिस, मिर्जा गालिब, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस आदि ने इस शहर को गौरवान्वित किया है। ये लोग विभिन्न यात्रा क्रमों में इस शहर को आशियाना बनाया है। यह वही शहर है जिसके गलियों का शहजादा डा0 हामिद अंसारी मुल्क का उप-राष्ट्रपति है।
फाहयान चीनी बौद्ध यात्री था जो सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल 405 0 में भारत आया। 06 वर्ष के यात्रा के दौरान गाजीपुर के भीतरी समेत अन्य स्थानों पर घूमा। 630 0 में 26 वर्ष की अवस्था में हवेनसांग मध्य ऐशिया को पार कर लम्बी पद यात्रा के दौरान भारत के विभिन्न स्थलों का दौरा किया तथा अपनी पुस्तक यात्रा वृतान्त में लिखा कि ‘‘इस देशसारनाथको छोड़कर गंगा नदी के पार तीन सौ ली यहां पांच ली बराबर एक मील, चल कर मैंचिन-चूमतलबबहादुरों का स्थानदेश पहुंचा। वहां की मिट्टी बड़ी उपजाउ है। फल-फूल और अनाज भी खूब पैदा होता है।’’ लोहानी गाजीपुर में आतंक मचा रखा था, जिसे समाप्त करने के लिए बाबर ने हुमायूं को भेजा। हुमायूं के आने की खबर से ही लोहानी भाग गया। जिसपर हुमायूं अपना एक फौली दस्ता छोड़ कर आगे चलता बना। इस बात का विस्तार से जिक्र बाबरनामा में है।
हुमायूं के आगे बढ़ते ही अफगानियों ने गाजीपुर पर धावा बोल दिया तथा गाजीपुर, जौनपुर, कन्नौज तक के ज्यादातर स्थानों पर कब्जा जमा लिया। इस पर बाबर अप्रैल 1528 में अपनी फौज के साथ गाजीपुर में कर्मनाशा गंगा नदी के ठीक बीचो-बीच पड़ाव डाला तथा अफगानों को गाजीपुर इलाके से खदेड़ कर आगे बढ़ा। मुगल बादशाह अकबर महान सुबेदार दाउद खान के खिलाफ एक फौजी मुहीम पर जाते हुए गामती गंगा नदी के संगम पर गाजीपुर जनपद के सैदपुर में 25 जुलाई सन् 1573 को कुछ दिनों तक कयाम किया। अकबर के नौ रत्नों में एक संगीत सम्राट तानसेन शाह मुहम्मद गौस का मुरीद था। पिता की वसीयत पर वह शाह मुहम्मद गौस से मिलने गाजीपुर आया था। मुगल बादशाह शाहजहां जौनपुर यात्रा के दौरान गाजीपुर के शादियाबाद में हजरत मलिक मरदान के रौजे पर फातिहाख्वानी का एहतमाम किया था। 12 मई सन् 1862 में सर सैयद अहमद खां सब जज बनकर मुरादाबाद से तबादले पर गाजीपुर आए। सन् 1864 0 में विक्टोरिया हाई स्कूल की नींव गाजीपुर शहर में रखा इन्होने। राष्टगान के रचयिता नोबेल पुरस्कार विजेता कविवर रविन्द्र नाथ टैगोर ने भी सरजमीने गाजीपुर पर अपने मुबारक कदम सन् 1688 0 में रखे थे। उन्होने गाजीपुर के प्राकृतिक छटा खासकर गुलाब की चर्चा सुन रखा था। जब वे आयें तो गंगा नदी के तटपर ताड़ीघाट के ठीक सामने गुलाबों के बाग में ठहरे थें। गुलाबों के बीच बैठे-बैठे उन्होने 28 कविताओं की रचना की थी। जो सन् 1890 0 में मानसी नामक कविता संग्रह में छपा था। रविद्रनाथ टैगोर के ही नामपर गोराबाजार से बदलकर रविद्रपुरी रखा गया है। स्वामी विवेकानन्द 21 जनवरी सन् 1890 0 से 12 अप्रैल सन् 1890 0 तक अपने मित्र सतीश चन्द्र मुखर्जी के घर गाजीपुर में ठहरे थे इस बात की चर्चा तज्करा--मशाएख गाजीपुर में है। सतीश जी के एक मित्र अक्सर उनके घर आते तथा पोहारी बाबा जिक्र करते, जिसपर विवकेकानन्द जी पोहारी बाबा से मिलने गए।
गाजीपुर हमेशा से शेर शायरी का गढ़ रहा है। आस गाजीपुरी से खामोश गाजीपुरी तक शायरों की लम्बी फेहरिश्त है। ऐसा माना जाता है कि पेनशन के सिलसिले में दिल्ली से कलकत्ता जाते वक्त मिर्जा गालिब साहब भी गाजीपुर में रात गुजारा था। राष्टीय आन्दोलनों यात्राओं के दौरान महात्मा गांधी ने गाजीपुर को अनेकों बार अपने कदमों से नापा है। सन 1941 0 में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस कलकत्ता से गाजीपुर आकर अनेकों बार जोशीला भाष दिया जिसके फलस्वरूप फिल्मकार नजीर हुसैन के नेतृतव में सैकड़ों की तायदाद में आजाद हिन्द फौज के रणबाकुरे तैयार हुए। मारीशश के सदर रामगुलाम का नाता गाजीपुर के ताड़ीघाट से है। संगीत की दुनियां में नौरस और सितार वादन के पंडित उदय शंकर पद्म श्री रविशंकर का जन्म स्थान इसी गाजीपुर का नुसरतपुर है।
लुर्द माता चर्च, गाजीपुर

गाजीपुर में जहां एक तरफ सुफी, दर्वेश, फकीरों महापुरूषों का बार-बार आगमन रहा है और उनमें से ज्यादातर ने इस शहर को अपनी कर्मस्थली बनाकर विभिन्न क्षेत्रों में अपना योगदान दिया है। वहीं पर साधु संतों एवं योगियों ने अपने योग, साधना और तपस्या से गाजीपुर का नाम पुरे भारत में रोशन किया है। जिसमें गाजी बाबा, सन्त पोहारी बाबा, स्वामी सहजानन्द सरस्वती, स्वामी विश्वनाथ, स्वामी बालकृष्ण, लाल बाबा, सवामी तुलसी राम, गाधि ऋषि, विस्टी तापती के नागा बाबा प्रमुख हैं।
सन् 1818 0 में जिला बनने से पहले गाजीपुर का क्षेत्रफल काफी दूर तक विस्तृत था। बलिया, चौसा, सगड़ी, शहाबाबाद, भीतरी, खानपुर, महाईच आदि परगने गाजीपुर में सम्मिलित थें। उन दिनों बलिया गाजीपुर का तहसील हुआ करता था, एक सिपाही मंगल पाण्डेय ने बैरकपुर फौजी छावनी में सुअर और गाय की चर्बी वाले करतूस के उपयोग से भड़ककर अपने राइफल से गोली चलाकर कई अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। जिसके बाद उन्हे फांसी दे दी गई, पुरा इलाका अंग्रजों के खिलाफ आक्रोशित हो उठा तथा आजादी की जंग भड़क उठी।
व्यावसायिक नजरिये से गाजीपुर प्राचीन, मुगल ब्रिटिश काल से ही समृद्ध रहा है। जैसा कि हवेन्सांग ने अपने यात्रा वृतांत में उपजाउ बताया है। डा0 जान गिलक्रिस्ट अंग्रेज होते हुए भी भारतीय भाषाओं और यहां की प्राचीन सभ्यता से काफी प्रभावित थे। विद्वान होने के साथ वह अच्छा किसान चतुर व्यापारी भी था। फोर्ट विलियम कालेज, कलकत्ता के स्थापना से पूर्व सन् 1787-1788 0 में उसने एक दोस्त चार्टर्स के साथ मिलकर गाजीपुर इलाके में नील की खेती शुरू किया। जगह-जगह नील को इकठ्ठा कराने की खातिर गोदाम बनवाए। गाजीपुर शहर में नील की सबसे बड़ी गोदाम था। जहां से कच्चा माल विदेशों को जाता था। आज उस कोठी पर एम. एच. इण्टर कालेज है। डा0 राही मासूमरजाने अपने उपंयास आधा गांव में इसका नक्शा बड़ा ही दिलचस्प खिंचा है ‘‘हमारे गंगौली गांव, गाजीपुर में चूनं का बना हुआ नील का एक बड़ा कारखाना है, जिसे हम मालूम क्यों गोदाम कहते हैं। यह जान गिलक्रिस्ट की यादगार है यानि एक युग की निशानी।’’ वरिष्ठ इतिहासकार डा0 जयराम सिंह कहते हैं कि ‘‘ 1787-1788 0 उसके आसपास गाजीपुर में नील की खेती बड़े पैमाने पर होती थी तथा उसका निर्यात मैनचेस्टर, ब्रिटेन अन्य दूसरे मुल्कों में होता था।’’
नील की खेती के साथ ही अंग्रेजों ने गाजीपुर में अफीम की खेती भी शुरू करा दिया था जोकि शासकीय तौर पर तकरीबन 1500 एकड़ में की जाती थी। स्न 1797 0 में ब्रिटिश सरकार ने एक कानून के तहत अफीम की खेती का लाइसेन्स देशी ऐजेन्टों को भी दे दिया गया।

अफीम फैक्ट्री, गाजीपुर

गाजीपुर में सन् 1820 0 में स्थापित अफीम कारखाना में अफीम सुखा कर जापान और अमेरिका समेत तमाम देशों को निर्यात किया जाता है। इसी संस्थान के दूसरे हिस्से, क्षारोद कारखाने की स्थापना सन् 1947 में हुई थी। यहां से निकाला गया अफीम का क्षार घरेलू दवा कम्ननियों को बेचा जाता है। एशिया में इस तरह की सिर्फ दो ही अफीम कारखाना है। ऐसी दूसरी अफीम कारखाना मध्य प्रदेश के नीमच में है। भारत सरकार को हर साल करोड़ों का राजस्व देने वाली यह अफीम कारखाना तकरीबन 45 एकड़ में है। यहां कुल 756 कर्मचार कार्यरत हैं। यहां अफीम से क्षारोद का सालाना उत्पादन लक्ष्य 3500 से 4000 किलोग्राम है जबकि हर साल करीब 250 मीट्रिक टन अफीम विदेशों को निर्यात किया जाता है।
गाजीपरु गुलाब, गजरा, गुलाब-जल, इत्र, केवड़ा आदि के लिए देश ही नहीं वरन विदेशों में प्रसिद्ध है। ब्रिटिश काल में यहां का गुलाब, गुलाब-जल, इत्र, केवड़ा ब्रिटेन समेत अन्य बैरूनी मुलकों में अपनी खूबशूरती बिखेरता था। बनारस, इलाहाबाद, पटना, गया और गोरखपुर के मन्दिरों में देवी-देवताओं के मुकुट पर गाजीपुर के सुगन्धित पुष्प हुआ करते थे। यहां के खुशबू से पूर देश मोअत्तर हुआ करता था। रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी कविता सुग्रह मानसी के सोचना शीर्षक में लिखा है कि ‘‘गाजीपुर का नाम गुलाबों की वजह से मैनें बचपन में सुन रखा था। यह हकीकत है कि यह शहर गुलाबों का शहर कहलाता है।’’

रेलवे स्टेशन, गाजीपुर

गाजीपुर को एक खास चीज के लिए भी याद किया जाता है, वह है परमवीर चक्र। बात सन् 1965 0 की है। अमन चाहने वालों को जंग बुरी लग रही थी जो हम पर थोपी गयी थी। अब्दुल हमीद की शहादत से पहले गाजीपुर को अफीम की कोठी और केवड़ा, गुलाबव गुलाब-जल के लिए जाना जाता था, लेकिन अब यह हमीद-रक्त के लिए मशहूर हो गया है। यह खून इस गाजीपुर की सबसे बड़ी पैदावार है। गाजीपुर परमवीर चक्र विजेता कम्पन क्वार्टर हवलदार की जन्म भूमी है। हां, यह बात हमको 17 सितम्बर 1965 0 को मालम हुई कि 01 जुलाई 1933 को गाजीपुर के धामूपुर गांव के उस्मान दर्जी के घर एक बच्चा पैदा हुआ था जिसका नाम अब्दूल हमीद रखा गया। पर लगता है वास्तव में अबदुल हमीद 17 सितम्ब 1965 को ही भारत-पाक युद्ध के रणभूमि के कसूर क्षेत्र में पैदा हुए। हवलदार हमीद शहीद हुए तो लगा कि यह खूनों का संगम कितना पवित्र हो गया। गुलाबों की सरजमीं पर यह कितना हसीन गुलाब खिला। अब्दुल हमीद ने अपनी कुर्बानी देकर भारत-पाकिस्तान के बटवारे दो कौमों के नजरिये की ईंट से ईंट बजा दी, जो धर्म को ही कौम का आधार मानते हैं वे पागल नहीं है तो क्या हैं? उन्हे कौन समझाता कि कोैम का मुल्क से सम्बन्ध नहीं होता। जंग के मैदान से अब्दुल हमीद ने अपने बेटे-बेटियों के लिए कुछ सौगात भेजी, परन्तु उसने गाजीपुर को एक बेशकीमती सौगात भेजी परमवीर चक्र, अब्दुल हमीद को तिलक लगाकर गाजीपुर धन्य हो गया। इस वीर सपूत की याद को जिन्दा रखने के लिए गंगा नदी पर जो पुल बना वह वीर अब्दूल हमीद सेतु के नाम से जाना जाता है।
गाजीपुर के गर्भ में जाने कितने रहस्य तिलिस्म छुपे हुए हैं, जिसको टटोला जाए तो ये अनमोल विरासत सामने आयेंगे। गाजीपुर शहर से 18 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व कोर पर बसा है मुगलिया दौर का दिलदार नगर। यहां की प्राचीन सरजमीं के तारीकी पन्नों पर अगर रोशनी डाला जाए तो द्वापर युग के नल-दमयंती का विशाल टीला, कोट नल-दमयंती का विशाल तालाब रानीसागर ताल बीहड़ इसकी जमीन पर आज भी अपनी राजसी आंच लिए मौजूद हैं।

लार्ड कार्नवालिस का मकबरा, गोरा बाज़ार-गाजीपुर

ब्रतानीहुकूमत के बेताज बादाशाह रहे लार्ड कार्नवालिस जमीन की पैमाइष कराते हुए कनकत्ता, पटना बबक्सर होते हुए गंगा नदी पार कर उत्तर प्रदेश के गाजीपुर की तहसील मोहम्दाबाद पहुंचे। मोहम्दाबाद के गौसपुर में मलेरीया बुखार के चलते गंगा के तट पर 05 अक्टूबर 1805 को 67 साल की उम्र में इस जांबाज गर्वनर जनरल की मैत हो गयी। जिसके याद में तत्कालीन कलकत्ता ब्रिटिष नागरिकों ने गाजीपुर के गोराबाजार स्थित पी. जी. कालेज के सामने 06 एकड भूमी पर एक भव्य मकबरे का निर्माण कराया। ब्रिटिष स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना लार्ड कार्नवालिस का मकबरा तकरीबन 19 साल के तवील मुद्दत के बाद बनकर तैयार हुआ। मुख्य मकबरे की बात करें तो भूतल से 3.66 मीटर वृत्ताकार चबूतरे पर विशाल गुम्बदनुम संरचना 12 विशाल पत्थर से बने खंभों पर टिकी ह्रै। धूसर रंग के संगमरमर से बने इस मकबरे के केन्द्र में स्वेत संगमरमर की लार्ड कार्नवालिस की अवाक्ष मुर्ति एक वर्गाकार चौकी पर स्थापित है। इसके चारों तरफ एक ब्राहम्ण, एक मुसलमान, एक यूरोपियन एक स्थानीय सैनिक मर्माहत मुद्रा में दर्शाया गया है। साथ ही उसपर कमल के फूल, कलियां, पत्तियों की उत्कृष्ट नक्काशी उकेरी गयी है। चौकी के उत्तरी दक्षिणी फलक पर क्रमशः उर्दू तथा अंग्रेजी में लार्ड कार्नवालिस की यशगाथा अंकित है। अधोमुखी तोपों से युक्त तथा भाला, तलवार आदि के अंकन से युक्त घेराबन्दी मनमोहक लगती है। कार्नवालिस के मकबरे की देख-भाल की जिम्मेदारी भारती पुरातत्व विभाग पर है। मकबरे की दीदार की खतिर भारतीय पुरातत्व विभाग भारतीय नागरिकों से पांच रूपया विदेशी सैलानियों से दो यू.एस. डालर वसूल करता है। लार्ड कार्नवालिस के मकबरे के तीन से चार किलोमीटर की परिधि में मुगल ब्रिटिश काल के तमाम पुरातात्विक धवसांश बिखरे पड़े हैं। मकबरे के तीन किलोमीटर पच्छिम में स्थित है हाथीखाना। स्थानीय नागरिक बचउ बताते हैं कि ‘‘हाथिखाना नाम इस वजह से पड़ा की गांव के पास एक बहुत बड़ा तालाब था जो कि अब समाप्ति के कगार पर है, के पास मुगलों के जमाने में हाथी बांधे जाते थे। उक्त तालाब में बड़े-बड़े हौदे भी मिले थे।’’ गांव में अंग्रेजों के कब्रिस्तान में पक्की कब्रें बनीं हैं, जिसपर मरने वालें का विस्तृत विवरण अंकित है। इसके अलावा प्राचीन आस्ताने वाली मस्जिद, मुगल कालीन जिन्नातों की मस्जिद, हिजड़ों की मस्जिद, गोराबाजार, रेलवे स्टेशन आदि शहर की प्राचीनता की गाथा खुद--खुद सुनाते हैं। गाजीपुर के बीचो-बीच तूलसी सागर इलाके में स्थित है ईसाई समुदाय का प्रार्थना घर लुर्द माता कैथोलिक चर्च। इस चर्च में ईसाई समुदाय के लोग सुबह-शाम प्रार्थना करते हैं। गंगा नदी के तट पर स्थित है स्वामी सहजानन्द सरस्वती पी. जी. कालेज का विशाल कैम्पस, जहां पर स्वामी जी का मन्दिर स्थित है। कृषक आन्दोलन के वाहक स्वामी जी बड़े विद्वान मनीषी गुजरे हैं।
गाजीपुर प्राचीन काल से ही अदबी सुकून का गढ़ रहा है। कवि गोष्ठियां, नाट्य कर्म, मुशायरे, संगोष्ठियां कवि सम्मेलन यहां आये दिन होते रहते हैं। उर्दू के विख्यात गीतकार तथा हिन्दी के उपन्यासकार डा0 राही मासूम रजा ने गाजीपुर को साहित्य के क्षेत्र में मुकम्मल पहचान दिलाया है। गाजीपुर के गंगौली निवासी मासूम राही रजा का उपन्यास आधा गांव, नाम का पेड़, कटरा बी आरजू, ओस की बून्द, दिल एक सादा कागज हिन्दी उर्दू अदब के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। कवि, गीतकार कहानीकार डा0 राही मासूम रजा के जाने के बाद गाजीपुर को साहित्य के फलक पर अगर किसी ने पहचान दिलाई है तो वे हैं किसान लेखक डा0 विवेकी राय। बलिया में जन्मे श्री राय सन् 1964 में गाजीपुर के गवई-गंध-गुलाब बाड़ी बाग के हो के रह गये हैं। उम्र के 85 पड़ाव पार कर चुके डा0 विवेकी राय ने तकरीबन साढ़े पांच दर्जन पुस्तकों की कभी ढ़हने वाली इमारत तैयार की है। लेखन के शुरूवाती दौर सन् 1945 में पहली कहानी पाकिस्तानी सेे चर्चित हुए श्री राय तबसे अनवरत सक्रीय लेखन से जुड़े रहे हैं। काव्य पुस्तक दीक्षा, उनयास देहरी के पार, सोनामाटी, श्वेत पत्र, समर शेष आपकी उत्कृष्ट रचनाएं हैं। इसी क्रम में कविता के क्षेत्र में जितेन्द्र पाठक, उमाशंकर तिवार, गीतों के राजा कुमार शैलेन्द्र, जिनकी पुस्तक धूप लिफाफे में प्रकाशित हुई। गिरिजा शंकर राय गिरिजेश, राम बहादुर राय, उदय गुप्ता, सुजय कृष्ण, धीरेन्द्र श्रीवास्तव, अशोक प्रियदर्शी, अनंत प्रकाश, सिंहासन यादव, तौसीफ सत्यमित्र्म ने गाजीपुर को पत्रकारिता के नकशे पर मुकम्मल पहचान दिलाई है। खानपुर के वरिष्ठ इतिहासकार विश्व इतिहास कांग्रेस के उपाध्यक्ष रह चुके डा0 हीरा लाल सिंह, इतिहासकार डा0 जयराम सिंह, युवा पुरस्कृत इतिहासकार उबैदुर्रहमान गाजीपुरी, सरजू तिवारी, 56 फारसी फरमानों प्राचीन सिक्कों, मुहरों, देश-विदेश के करंसी नोटों के नम्बरवार इकठ्ठा करने वाले कुवंर नसीम रजा, भूगोलविद् जामीय मीलिया के उप कुलपति रहे मुनीश रजा, कमसारनामा के लेखक सुहैल रेवतीपुरी का सम्बन्ध भी गाजीपुर की सरजमीं से है।

Wednesday, March 9, 2011

व्यथा

डूबते..... डुगडुगीबाज
  • एम अफसर खान सागर


बाअदब.... बामुलाहिजा...., होशियार! बादाशाह सलामत के हुक्म से फलां बिन फलां को जिलाबदर किया जा रहा है। फलां को हिदायत दी जाती है कि फरमान जारी होने के चौबीस घन्टे के अन्दर ठीकाना छोड़ वरना....... एक दौर था जब मुनादी की शक्ल में हर खास आम के बीच गूंजती सल्तनत की यह हिदायत उस शख्स के लिए पानी में डूब मरने जैसी शर्मिंदगी का बायस हुआ करती थी जिसके नाम की डुगडुगी पिटा करती थी। एक वक्त था कि सामाजिक भर्त्सना से जुड़े दंड का यह तरीका खास चलन में हुआ करता था, जिसके वाहक होते थे डुगडुगीबाज।
मुगलों के दौर में यह चलन पूरे शबाब पर था। छोटी से छोटी और बड़ी से फरमानें सूचना डुगडुगी बजाकर रियाया तक पहुंचायी जाती थीं। डुगडुगी बजाकर ही राजे-रजवाड़ों के सड़कों से गुजरने इजलासों में आने की सूचनाएं दी जाती थीं। मसलन, होशियार.... खबरदार.....! बादशाह सलामत तशरीफ ला रहे हैं। निजाम बदला तो इन्तजाम भी बदल गया। गुमल दफन हुए अंग्रेज आये। डुगडुगी बजी मगर मकसद बदल गया। इसके बजने का सबब होता कि किस गांव में कौन बगावत पर उतर आया है और उसे क्या सजा मुकर्रर हुई। मुल्क आजाद हुआ, युग बदला और फिर डुगडुगी का इस्तेमाल अपराधियों के खिलाफ होने वाले जिलाबदर कुर्क जैसे फैसलों की सूचना देने में की जाने लगी। उसके अलावा निजी तौर पर लोग बच्चे मवेशियों के गायब होने की सूचना के साथ दंकान सामानों के प्रचार तक में डुगडुगी का प्रयोग करने लगें।
आजादी के मुल्क में विकास का तेज दौर शुरू हुआ। प्रचार प्रसार के संसाधनों में आधुनिकता आयी। राजा-रवाड़े वक्त के औराक बन गये। दौर गुजरने के साथ ही डुगडुगी पीटने वाले भी नजर अन्दाज कर दिये गये। अमूमन डुगडुगीबाजों का वास्ता गन्दीबस्तियों और गरीब घरों से था मगर ये अच्छे-अच्छों के पानी उतारते फिरते। जैसे-जैसे पुरानी परम्परायें टूंटी वेसे-वैसे ये डुगडुगीबाज टूटते चले गये। किसी समय बनारस की शान और मशहूर मारूफ डुगडुगीबाज होरी लाल गुमनामी में परलोक सिधार गये। डुगडुगी तो दूर उनके लाश पर फकत आंसू बहाने वाले नहीं मिले। होरी लाल मौके की नजाकत देखकर मुनादी करने में माहि थे। खासकर सामाजिक भर्त्सनो जैसे मामलों में तो उनका अन्दाज--बयां सुनने लायक था। अंग्रजी की इबारतें बड़ी फर्राटा से बोाल करते थें, मगर जिन्दगी के अन्तिम वक्त में इस डुगडुगीबाज को फकत सयाह अन्धेरों के कुछ नसीब नहीं हुआ।
अब गिने-चुने लोग ही डुगडुगी बजाते हैं। अक्सर वही जो 75 के पार हैं। यदा-कदा बिजली ,पानी पुलिस विभाग को इनकी हाजत आन पड़ती है। या कभी-कभार ग्राम सभा की खुली बैठक के लिए इन्हे मुनादी का जिम्मा दिया जाता है। यही वजह है कि धन्धे में आयी मन्दी के कारण ये लोग इसको बाय-बाय करने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। वक्त के बदलते मिजाज ने इन डुगडुगीबाजों की जिन्दगी को डगमगा दिया है। गुमनागी मुफलिसी के स्याह अन्धेरे में डुबने लगे हैं ये।
इधर फिर पुलिस महकमे में अपराधियों की सम्पत्ति जब्त या कुर्क करने की कार्यवाही पर डुगडुगी पीटवाने का प्रचलन शुरू हुआ है, मगर अब डुगडुगीबाजों का टोटा पड़ा है। इसलिए कुछ थानेदार साहबान तो मजदूरों को पकड़कर कनस्टर पिटवा रहे हैं। कहीं-कहीं डुगडुगी की जगह नगाड़ों से काम चलाया जा रहा है। आखिर क्यों पीटे ये डुगडुगी, जब इनके पेट ही भर पाता हो। कभी भी इन डुगडुगीबाजों को गर्व सम्मान की जिन्दगी नसीब नहीं हो पायी। हमेशा मुफलिसी ने इन्हे घेरे रक्खा। इनका अब कोई पुरसे हाल नहीं रहा। लग तो ऐसा रहा है कि इन जर्जर काया वाले डुगडुगीबाजों के साथ ही डुगडुगी की प्राचीन कला दफन हो जायेगी। शायद अनकरीब ही खत्म हो जायें ये डुगडुगीबाज और डूब जाये डुगडुगी की आवाज। सचेत रहिए, अगर कहीं दिख जावें ये तो जरूर सुन ले इनकी फरियाद। ये डुगडुगीबाज शायद लगायें ये आवाज, होशियार..., खबरदार...! अब नहीं आयेगा डुगडुगी का अलम्बरदार।
इनके हालात पर कवि नीरज की ये पंक्तियां बरबस ही जेहन में ताजा हो जाती हैं-

मेरे घर खुशी आती तो कैसे आती
उम्र भर साथ रहा दर्द महाजन की तरह।

Tuesday, March 8, 2011

लो मैं आया...

आपके दोस्त एम अफसर खान सागर का नया अवतार....




Friday, March 4, 2011

इतिहास

पर्यटन के नक़्शे से गुम कार्नवालिस
  • एम अफसर खान सागर


कार्नवालिस का मकबरा गाजीपुर

ब्रिटिश हुकूमत के दौरान लार्ड कार्नवालिस ने जो भूमी बन्दोबस्त, राजस्व व न्याय सुधार किए थे उसी तय लीक पर आज भी अमल बदस्तूर जारी है। ब्रितानीहुकूमत के बेताज बादशाह रहे लार्ड कार्नवालिस जमीन की पैमाइष कराते हुए कनकत्ता, पटना व बबक्सर होते हुए गंगा नदी पार कर उत्तर प्रदेश के गाजीपुर की तहसील मोहम्दाबाद पहुंचे। मोहम्दाबाद के गौसपुर में मलेरीया बुखार के चलते गंगा के तट पर 05 अक्टूबर 1805 को 67 साल की उम्र में इस जांबाज गर्वनर जनरल की मैत हो गयी। जिसके याद में तत्कालीन कलकत्ता ब्रिटिश नागरिकों ने गाजीपुर के गोराबाजार स्थित पी. जी. कालेज के सामने 06 एकड भूमी पर एक भव्य मकबरे का निर्माण कराया।

कार्नवालिस के मकबरे के अन्दर बनी मूर्ति

ब्रिटिश स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना लार्ड कार्नवालिस का मकबरा तकरीबन 19 साल के तवील मुद्दत के बाद बनकर तैयार हुआ। मुख्य मकबरे की बात करें तो भूतल से 3.66 मीटर वृत्ताकार चबूतरे पर विशाल गुम्बदनुम संरचना 12 विशाल पत्थर से बने खंभों पर टिकी ह्रै। धूसर रंग के संगमरमर से बने इस मकबरे के केन्द्र में स्वेत संगमरमर की लार्ड कार्नवालिस की अवाक्ष मुर्ति एक वर्गाकार चौकी पर स्थापित है। इसके चारों तरफ एक ब्राहम्ण, एक मुसलमान, एक यूरोपियन व एक स्थानीय सैनिक मर्माहत मुद्रा में दर्शाया गया है। साथ ही उसपर कमल के फूल, कलियां, पत्तियानें की उत्कृष्ट नक्काशी उकेरी गयी है। चौकी के उत्तरी व दक्षिणी फलक पर क्रमशः उर्दू तथा अंग्रेजी में लार्ड कार्नवालिस की यशगाथा अंकित है। अधोमुखी तोपों से युक्त तथा भाला, तलवार आदि के अंकन से युक्त घेराबन्दी मनमोहक लगती है। कार्नवालिस के मकबरे की देख-भाल की जिम्मेदारी भारती पुरातत्व विभाग पर है। मकबरे की दीदार की खतिर भारतीय पुरातत्व विभाग भारतीय नागरिकों से पांच रूपया व विदेशी सैलानियों से दो यू.एस. डालर वसूल करता है। भारत आजाद हुआ। अंग्रेज वापस आपे मुल्क चले गये। निजाम बदलने के साथ इन्तजाम भी बदला। उचित संरक्षण के आभाव में कार्नवालिस के मकबरे में बदहाली ने अपना साम्राज्य कायम करना शुरू किया। सैलानियों से पियाउ जल छिना, शौचालय, स्नानागार खण्डहर में तब्दील हुए, फिर बैठने के लिए लगाये गये 16 बेंच धराशायी हुए। टिकट बुकिंग काउंटर ढहा उसके बाद कुआं के जगत ने दमतोड़ा। हां, मरणसन्न कुएं का जगत प्रेमियों के लिए आाशियाना जरूर बना। चार माली व तीन परिचर के सहारे चल रहा मकबरे की देख-भाल लावारिश व यतीम बच्चे से कम तो बिल्कुल नहीं है।


उर्दू में लिखा कार्नवालिस की यसगथा

अब अगर मकबरे की गुम्बद पर गौर फरमायें तो इसमें बरसात का पानी बहुत ही सलीके से रिसता है। गुम्बद की छत पर विलाप करते हुए कबूतर आदि पंछियों ने बीट कर रखा है। मकबरे के अन्दर मधुमक्खीयों का साम्राज्य स्थापित है। मकबरे के भीतरी दीवारों पर प्रमियों ने अपने चाहने वालों के नाम कार्नवालिस के यशगाथा के साथ स्कैच, पेन्ट आदि से अंकित कर रखा है। मकबरे को अपनी निगहबानी में रखे चहारदीवारी भी अब निगहबानी करते-करते थकते नजर आते हैं, सो प्लास्टर के साथ अब ईंट उखड़ने लगे हैं। वो तो गनीमत है कि ब्रितानी हुकूमत के लगाये गये लोहे की छड़ों पर जंग नही लगा है। इस बदहाली की सूरत में लार्ड कार्नवालिस की रूह येह शेर जरूर याद कर रही होगी-

आये थे वो मेरी कब्र पे फातिहा पढ़नें
ले गये उखाड़ के ईंटे वो मेरी कब्र के।



पुरातत्व विभाग के संरक्षण सहायक प्रदीप कुमार त्रिपठी से मकबरे की बदहाली पर एक बार बात हुई थी तो उन्होने बताया कि ‘‘मकबरे की सुन्दरीकरण में अभी बहुत कुछ करना है। बजट के हिसाब से कामों को पूरा किया जाता है। जल्द ही मकबरे को बेहतर रूप दिया जाएगा।’’ लार्ड कार्नवालिस अपने सुधारों के लिए इतिहास में भले ही अमर हो गये हों लेकिन पर्यटन विभाग के भारत गाइड बुक में उनके मकबरे के लिए शायद जगह नहीं है। इससे बड़ी उपेक्षा की बात क्या हो सकती है? जाहिर है ऐसे में ब्रितानी व अन्य मुल्कों के सैलानी अपने इस जांबाज गर्वनर जनरल के मकबरे की जियारत से महरूम रह जाते हैं। जबकि बौद्ध दर्शन की खातिर पर्यटक कूशीनगर, वाराणसी-गाजीपुर मार्ग से ही जाते हैं। मकबरे में कार्यरत एक कर्मचारी ने बताया कि तकरीबन दस साल पहले कार्नवालिस के वंशज मकबरा देखने आये थे। दो घंटा बिताने के बाद हर कर्मचारी को सौ रूपये बतौर बख्शिश दिया और चले गये।


भारतीय पर्यटन के नक्शे से गुम लार्ड कार्नवालिस का मकबरा खुद की बेनूरी मायूस जरूर है मगर इससे होने वाली विदेशी मुद्रा की आमदनी से सरकार भी महरूम है। अगर सरकार व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कार्नवालिस के मकबरे का सुन्दरीकरण करा कर पर्यटकों कर खातिर उचित सुविधा मुहैया कराकर इसे भारत गाइड बुक व पर्यटन के नक्शे पर अंकित करा देती है तो इससे विदेशी मुद्रा तो अर्जित होगा ही बल्कि इस जांबाज गर्वनर जनरल के रूह को सुकून मिलेगा। वर्ना कार्नवालिस की रूह हमेशा अल्लमा इकबाल साहब के इस शेर से मुत्मयिन हो जाएगी-

आयी बहार कलियां फूलों की हंस रही हैं
मैं इस अंधेरे घर में किस्मत को रो रहा हूं।

ये शाम मस्तानी...




कुछ ज्यादा नहीं कहना हैबस यूँ ही सोच रहा था कि ....

सुबह
होती है शाम होती है,
ज़िन्दगी यूँ ही तमाम होती है
दुआओं का तलबगार...
एम अफसर खान सागर