Sunday, November 11, 2012

सागर उवाच

कैटल क्लास की दीवाली

 

शाम के वक्त चैपाल सज चुकी थी। रावण दहन के बाद मूर्ति विसर्जित कर लोग धीरे-धीरे चैपाल की जानिब मुखातिब हो रहे थे। दशहरा वाली सुबह ही काका ने जोखन को पूरे गांव में घूमकर मुनादि का हुक्म दे दिया था कि सभी कैटल क्लास के लोग विसर्जन के बाद दीवाली के बाबत चैपाल में हाजिर रहें। काका पेशानी पर हाथ रख कर शून्य में लीन थे कि जोखन ने आत्मघाती हमला बोल दिया... कौने फिकिर में लीन बाड़ा काका, चुप ससुरा का धमा चैकड़ी मचा रखले बाड़े... काका ने जोखन को डांटते हुए कहा। माहौल धीरे-धीरे धमाकों की गूंज में तब्दील हो चुका था। लोगों की कानाफूसी जोर पकड़ चुकी थी ऐसे में जोखन तपाक से बोल पड़ा... हे काका! अबकी दीवाली पर न त चाउर-चूड़ा होई नाहीं त घरीय-गोझिया क कउनो उम्मीद बा फिर तू काहें दीवाली के फिकिर में लीन बाड़ा। जोखन की बात से पूरा चैपाल सहमत था। माहौल में सियापा छा चुका था सभी लोग काका की तरफ ऐसे ध्यान लगाए बैठे थे मानो वो गांव के मुखिया नहीं मुल्क के मुखिया हों।
बात अगर त्यौहारों की हो तो उसमें चीनी का होना वैसे ही लाजमी है जैसे ससुराल में साली का होना वर्ना सब मजा किरकिरा। काफी देर बाद काका ने चुप्पी तोड़ी... प्यारे कैटल क्लास के भाईयों अबकी दीवाली में चीनी, चावल, चूड़ा, तेल, घी, मोमबत्ती व दीया में सादगी के लिए तैयार हो जाइए। बदलते वक्त के साथ हमें भी नई श्रेणी में रख दिया गया है, जहां हम पहले जनता जर्नादन की श्रेणी में थें मगर अब कैटल क्लास में आ गये हैं। ...तो अब हमें चीन, चावल, चूड़ा, गुझिया की जगह घास-भूसा, चारा से काम चलाना होगा ? जोखन ने सवाल दागा। आपने सही समझा... मैडम व सरदार जी के दौर में हमें नतीजा तो भुगतना ही पड़ेगा न! चीनी इस त्यौहारी मौसम में मीठान न घोलकर हमसब के घरों में जहर घोलने पर जो आमादा है। ऐसे में घरीया व गुझिया के कद्रदानों को चीनी की बेवफाई से शुगर का खतरा भी कम हो गया है। तभी तो पास बैठे अश्विनी बाबू ने एक मसल छेड़ी-

जश्न-ए-पूजा, जश्न-ए-दीवाली या फिर हो जश्न-ए-ईद
क्या मनाएंगे इन्हे? जो हैं सिर्फ चीनी के मूरीद।

माहौल में कुछ ताजगी का एहसास हुआ फिर बात आगे बढ़ चली। हां तो कैटल क्लास के भाईयों इस दीवाली हमारे घरों में अंधेरे का काला साम्राज्य ठीक उसी तरह कायम रहना चाहिए जैसे केन्द्र में यूपीए व वैष्विक बाजार में मंदी तथा हमारे मुल्क में महंगाई का है। सो हम सब सादगी का परिचय देने हुए न तो तेल-घी का दीप जलायेंगे न ही कैंडील। इस बार दीप नहीं दिल जलेंगे खाली, सादी होगी अपनी दीवाली।
हां तो कैटल क्लास के भाईयों आप पूरी तरह से तैयार हो जाएं अबकी दीवाली में घास-भूसा और चारा का लुत्फ उठाने के लिए तबेले के घुप अंधेरे में दीवाली को मनाने के लिए। हे काका... चारा त लालू भईया चाट गईलन, जोखन के इस सवाल पर चैपाल का माहौल धमाकाखेज हो गया। कानाफूसी व बतरस के बीच कोई कहता... अरे भाई कैटल क्लास में भी मारा-मारी है तो कोई लालू को कोसता, बात निकली है तो दूर तलक जायेगी सो काका ने माहौल को किसी तरह दीवालीया बनाया। महंगाई और मंदी का दौर है हम सबकी तो दीवाली सादी मनेंगी मगर कोइ शहर में जाकर भल मानूसों की दीवाली भी देखा है कैसे मनती है उनकी दीवाली? भौचकियाए लोग आपस में खुसर-फुसर करने लगे। सबकी निगाह अश्विनी बाबू पर जा टिकी। वहां तो हर रोज ही दशहरा, दीवाली मनता है काका। शहर में माल, बीयर बार, रेस्तरां, होटल आदि जगहों पर हमेशा होली व दीवाली का माहौल रहता है क्योंकि वहां आमदनी पैसा-रूपया नहीं डालर-पाउंड में होता है। तो वहां न दीवाली मनेगी कि यहां सूखे नहर व अकाल के माहौल में। फिर अश्विनी बाबू ने फरमाया-

कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया
बात निकली है तो हर इक बात पे रोना आया।

इसके बाद चैपाल में काका का फैसला आया... अबकी दीवाली हम कैटल क्लास के लोग न तो चूड़ा-घरिया के चक्कर में रहेंगे ना ही दीया-बाती के। पूरे सादगी के साथ मनेगा दीवाली। न पटाखा, न धमाका सिर्फ और सिर्फ सियापा व सन्नाटा। शास्त्री व बापू के आदर्शें पर चलकर मंत्रीयों व संतरीयों को करारा जवाब देना है। सादगी का लंगोट पहनकर मैडम, मनमोहन व महंगाई का मुकाबला करना है! न पकवान, न स्नान और न ही खानपान। खालीपेट रहकर देश की अर्थव्यवस्था को सुधारना है साथ ही शुगर व शरद बाबू के प्रकोप से भी बचना है। रात में घुप अंधेरा रहे ताकि आइल सब्सीडी का बेजां नुक्सान न हो। दीप की जगह दिल जलाना है, सादगी से दीवाली मनाना है। इसके लिए कैटल क्लास के लोग तैयार हैं ना...? काका के आह्वाहन पर सबने हामी भरी। रात के स्याह तारीकी में जलते दिलों के साथ घर की जानिब कैटल क्लास के लोग हमवार हुए।

                                                                                                                     एम. अफसर खां सागर

Saturday, November 10, 2012

शहर-ए-बनारस

इतिहास से सामना....
1773 ई0 में निर्मित लाला खां का रौजा या मकबरा वाराणसी, उ0प्र0 के राजघाट स्थित मालवीय पुल के निकट एक बड़े आयताकार आंगन जिसके चारों तरफ मीनारें हैं बीच में स्थित है। यह एक गुंबद के आकार का विशाल भवन है। जिसकी छत को रंगीन ग्लेज्ड टाइल्सों से सजाया गया है। यह भारत के प्राचीन सभ्यताओं के अवशेषों में से एक है।
 
लाला खां रौजा, राजघाट, वाराणसी।

लाला खां रौजा, राजघाट, वाराणसी।

लाला खां रौजा, राजघाट, वाराणसी।

लाला खां रौजा, वाराणसी के आंगन में खुदाई के दौरान मिले अवशेष।

लाला खां रौजा, वाराणसी का मुख्य द्वारा।

लाला खां रौजा, वाराणसी के मुख्य द्वारा पर नक्काशी।

लाला खां रौजा, वाराणसी के मुख्य द्वारा पर अरबी भाषा में लिखा शिलापट्ट।

लाला खां रौजा, वाराणसी में निर्मित मीनार।

लाला खां रौजा से मालवीय पुल का नजारा।

Wednesday, October 24, 2012

मेला

विजयादश्मी का मेला....

मेले में केला

मेले में पकौडी
मेले में मिट्टी के खिलौने   
मेले में कोका कोला
मेले में गूड की जलेबी
मेले में रेली का रेला  
स्थान- दश्मी का पोखरा, धानापुर , जनपद-चन्दौली।
.... मेला, केला और झमेला, इन तीनों का अजीब संयोग है।
आखिर कैसे आप सोचते होंगे, तो सुनिए आप मेले में जाएं और केला ना देखें ये सम्भव नहीं, अगर केला दिख गया और मोल भाव में झमेला ना हो तो कहिएगा !
अरे भाई गांव का मेला गांव के लोग और उसमें औरतों का मजमा फिर बन गई बात। शाम के चार बजे एक भाई साहब ने फोन किया पांच साल से हमने मेला नहीं देखा चलिए देख आएं। मैं भी राजी हो गया। हम लोग चल दिए मेला देखने... एक किलो मीटर का पैदल सफर तय करके हम लोग पहुंचे मेला देखने। सबसे पहले हमारा सामना केला से हुआ। आगे बढें तो कोका कोला से रंग, पोखरे का पानी और शक्कर......।
फिर गूड की जलेबी और  मिट्टी के खिलौने, गुल्लक..।
बादाम, झाल- मुडी के साथ मेले का रेली-रेला।
हो गया भई मेला.....।

Tuesday, October 16, 2012

समाज सेवा

                                निःशुल्क चिकित्सा शिविर


अदनाना वेलफेयर सोसाइटी के तत्वाधान में रविवार, दिनांक- 09.09.2012  को कस्बा स्थित अमर वीर इण्टर कालेज के प्रांगण में निःशुल्क चिकित्सा शिविर का आयोजन किया गया। जिसमें नेत्र रोग, हड्डी रोग, स्त्री एवं प्रसूत रोग, जनरल फिजिषियन, दंत एवं मुख रोग तथा बाल रोग के विशेषज्ञ चिकित्सकों द्वारा लगभग एक हजार मरीजों की जांच कर निःशुल्क दवा वितरित की गयी।
शिविर का उद्घाटन करते हुए सैयदराजा विधायक मनोज कुमार सिंह ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्र में आज भी बेहतर स्वास्थ सुविधाओं की कमी है, जिस वजह से गरीब, मजदूर व कमजोर तबके के लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में सोसाइटी द्वारा निःषुल्क चिकित्सा षिविर का आयोजन कराना सराहनीय पहल है। उन्होने कहा कि दीन-दुखियों की सेवा सबसे पुनीत कार्य है। इससे नवयुवकों को प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होने सोसाइटी द्वारा किए जा रहे विभिन्न मानवतावादी कार्यों की सराहना करते हुए खुद सदैव सहयोग का आष्वासन दिया।
सोसाइटी के प्रबन्धक एम0 अफसर खां सागर ने कहा कि शिविर का प्रमुख मकसद ग्रामीण इलाके के उन गरीब व असहाय लोगों को बेहतर स्वास्थ सुविधायें उपलब्ध कराना है जो इससे वंचित रह जाते हैं। जनसेवा के बल पर समाज में व्याप्त असंतुलन को समाप्त किया जा सकता है। सोसाइटी का प्रयास है कि ग्रामीण समुदाय में शिक्षा, स्वास्थ, वन संरक्षण, महिला कल्याण हेतु जन जागरण अभियान चलाकर लोगों को जगरूक किया जाए।
कार्यक्रम संयोजक डा0 विषाल सिंह ने शिविर में आये लोगों को स्वास्थ सम्बंधित जानकारी प्रदान की व आये हुए लोगों का आभार व्यक्त किया।
शिविर में डा0 रत्ना राय, डा0 धीरेन्द्र सिंह, डा0 अखिलेष सिंह, डा0 षैलेन्द्र सिंह, डा0 कुवंर सतीष, डा0 पंचम, डा0 ज्योति बसु, डा0 प्रमोद, डा0 पवन, डा0 कुमुदरंजन, डा0 विषाल सिंह, डा0 डी0 के0 षुक्ला, एवं डा0 आकाश चन्द पाण्डेय ने मरीजों का इलाज किया।
इस दौरान कालेज के प्राचार्य छेदी सिंह, रविन्द्र सिंह, संतोष सिंह, बृजेश सिंह, शाह आलम खां, गृहषंकर सिंह, इम्तियाज, विवेक यादव, बदरे आलम खां, अंगद यादव, सर्फुद्दीन, इरफान, हामिद, नदीम, सज्जाद, कुर्बान, मुरारी, नन्दू यादव, तबरेज खां साहब सहित सैकडों गणमान्य लोग लोग मौजूद थे।

Sunday, April 15, 2012

उम्मीद

धानापुर विधानसभा बने रहने की उम्मीद बरकरार

चुनाव आयोग द्वारा सन् 2008 में विधानसभा के परिसीमन के दौरान धानापुर विधानसभा का नाम बदलकर सैयदराजा कर दिया गया था। इसके उपरान्त धानापुर के लोगों ने 16 अगस्त 1942 के आन्दोलन के शहीदों से प्रेरणा लेकर धानापुर बचाओ संघर्ष समिति का गठन किया। नाम बदलने के लिए समिति के लोग लगातार जन जागरण कर हाईकोर्ट जाने की तैयारी किया।
इस कड़ी में सरकार चुनाव आयोग को पंजीकृत डाक के माध्म से धानापुर विधानसभा का नाम यथावत रखने का गुहार लगाते रहें। जब समिति के गुहार पर कोई कार्यवाही नहीं हुई तो विगत 09 अप्रैल 2012 को उच्च न्यायालय के समक्ष एक जनहित याचिका दाखिल कर धानापुर विधानसभा का नाम बदलने का आग्रह किया गया। जिसकी सुनवाई 12 अप्रैल 2012 को न्यायधीश द्वय माननीय आर के अग्रवाल निय माथुर द्वारा की गयी।
सुनवाई के दौरान दोनो पक्ष के वकीलों ने अपने तर्क रखें। जिसमें संघर्ष समिति के वकील द्वारा क्षेत्र की जनता का आत्मीय लगाव धानापुर के नाम के प्रति दर्शते हुए बताया कि धानापुर सिर्फ एक जगह का नाम नहीं बल्कि शहीदों की धरती है। धानापुर के नाम के साथ लाखें लोगों की आस्था जुडी है। दोनो पक्षों की दलीलें सुनने के बाद न्यायधीश द्वय ने शासकीय अधिवक्ता को सरकार का पक्ष रखने के लिए तीन सप्ताह का समय दिया है।
इस आदेश के बाद धानापुर के लोगों में हर्ष के साथ न्याय मिलने की आस में नाम बदले की उम्मीद जागी है

Monday, January 23, 2012

राजनीति

चुनावी दंगल में डान

उत्तर प्रदेश का चन्दौली जनपद धान का कटोरा माना जाता था मगर राजनैतिक व प्रशासनिक उपेक्षा के चलते किसानों के कटोरे से धान सूख गया है। अब इसकी पहचान नक्सली जनपद के रूप में की जाती है। आखिर हो भी क्यों ना? चकिया व नौगढ़ के जंगलों में नक्सलियों के पदचाप की कोलाहल गाहे-बेगाहे सुनायी देती रही है। किसानों की बदहाली व युवाओं की बेरोजगारी के साथ संसाधनों का आभाव प्रमुख वजह है। अगर राजनैतिक परिदृष्य पर गौर फरमाये नतो चन्दौली पचास से सत्तर के दशक के बीच लोकतांत्रिक राजनीतिक चेतना का गढ़ रहा है। यहां से राजनीति की शुरूवात करने वालों ने प्रदेश की राजनीति व सरकार को जहां नेतृत्व प्रदान किया है वहीं यहां विपक्ष की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञ भी अपनी अलग पहचान रखते थें। चन्दौली से सन् 1952 में अपनी राजनीतिक पारी की शुरूवात करने वाले दो राजनीतिक दिग्गज त्रिभुवन नारायण सिंह व पं0 कमलापति त्रिपाठी ने उत्तर प्रदेष सरकार की बागडोर सम्भाली। समाजवादी आनदोलन के जनक डा0 राममनोहर लोहिया ने सन् 1957 में चन्दौली से चुनाव लड़े व हार गये बावजूद इसके वे क्षेत्र से अपना सम्बंध बनाए रखे।
वैस तो जनपद में चार विधानसभा सीटें हैं मगर परिसीमन के बाद धानापुर व चन्दौली सदर दो विधानसभा सीटों का वजूद समाप्त हो गया है जिसके बाद सैयदराजा व सकलडीहा दो नये विधानसभा सृजित हुए। अब चकिया सुरक्षित के अलावा मुगलसराय, सैयदराजा व सकलडीहा जनपद की चार विधानसभा सीटें हैं। चुनाव की तारीख जैसे-जैसे करीब आ रही है सूबे में तमाम सियासी पार्टियों का चुनावी अभियान जोर पकड़ता जा रहा है। आज पांच दषक बीतने के बाद नये परिसीमन के साथ जनपद की राजनीति भी बदली सी गयी है। तभी तो सैयदराजा विधानसभा में 2012 में होने जा रहे चुनाव में जहां एक तरफ कानून का रखवाला चुनाव लड़ रहा है वहीं दूसरी तरफ कानून तोड़ने वाला भी चुनावी समर में ताल ठोंकता नजर आ रहा है।


सत्ता की हनक, विधायक की ठाट बाट और रूतबे को देखकर आज राजा से रंक तक को राजनीति का चस्का लग गया है। फिर जरायम जगत के चर्चित चेहरे सियासत का ताज पहनने से पीछे क्यों रहें? षायद यही वजह है कि जरायम की कालिख को सियासी लिबास में सफेद करने के लिए माफिया डान बृजेश सिंह भी सलाखों के पीछे से विधानसभा पहुंचने की जुगत में है। तभी तो वह चन्दौली के सैयदराजा विधानसभा सीट से प्रगतिषील मानव समाज पार्टी से चुनाव लड़ रहा है। डान के सामने पूर्व डिप्टी एसपी शैलेन्द्र सिंह भी कांग्रेस पर्टी से चुनाव लड़ रहें हैं। विदित हो कि शैलेन्द्र सिंह ने सपा सरकार में एक माफिया का एलएमजी पकड़े जाने वाले मामले में नौकरी छोड़ दी थी। लोगों में यह चर्चा आम है कि यहां मुकाबला कानून का रखवाला बनाम कानून तोड़ने वाले के बीच है। इसके अलावा सपा, बासपा, भाजपा व निर्दल उम्मीदवार भी चुनावी मैदान में हैं।
सैयदराजा विधानसभा में जातिगत आंकड़े पर गौर फरमाये तो यहां तकरीबन साठ हजार अनुसूचित जाति/जन जाति, पैतालिस हजार यादव, चालीस हजार राजपूत/भूमिहार, पच्चीस हजार मुसलमान, पच्चीस हजार बिन्द/मल्लाह, पन्द्र हजार ब्राहमण समेत अन्य बिरादरी के मतदाता हैं। ऐसे में वर्तमान पूर्व मंत्री व सदर बसपा विधायक शारदा प्रसाद को अपने कैडर वोट व ब्राहमण मतदाताओ का सहारा है तो सपा के रमाशंकर सिंह हिरन को परम्परागत मुस्लिम-यादव गठजोड, कांग्रेस को राहुल के जादू व शैलेन्द्र सिंह का साफ ईमानदार छवि तो भाजपा के हरेन्द्र राय का हंगाई व भ्रश्टाचार मुददा है। सपा के बागी व निर्दल उम्मीदवार मनोज कुमार सिंह डब्लू को यादव/मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन व स्थानीय प्रतिनिधि व क्षेत्र की बदहाली के मुददे का सहारा, बृजेश सिंह को स्वजातीय मतों के अलावा बिन्द/मल्लाह के समर्थन से चुनावी नैया पार लगाने की जुगत में है। स्वाजातीय उम्मीदवारों से घिरे माफिया डान बृजेश सिंह का सियासी सफर आसान नहीं लग रहा है। इसके साथ भतीजे व धानापुर से बसपा विधायक सुशील सिंह की कारकरदगी का भी सामना इनको करना पड़ सकता है। सूत्रों की मानें तो डान का चुनवी कमान उनका साल, पत्नि व खास लोगों के कंधों पर है। इनके लोग कहीं जाति तो कहीं जान बचाने के नाम पर वोट मांग रहे हैं।


एक तरफ जहां क्षेत्र में बिलजी, पानी, सड़क व स्वास्थ सेवाओं की बदहाली तो दूसरी तरफ गंगा कटान में समाती किसानों के मकान व कास्त की जमीने भी चुनाव के प्रमुख मुददें होंगे। बदहाल किसान, बेरोजगार युवा, बदहाल षिक्षा व्यवस्था भी नेताओं के सामने होगा। पांच साल तक उपेक्षित जनता बदलाव के मूड में है। सियासी जानकारों की मानें तो ऐसे में जबर्दस्त सियासी घमास की उम्मीद है। कडाके की ठण्ड में भी सैयदराजा में सियासी पारा गर्म है। चैराहों-चैपालों में जितनी मुंह उतनी बातों का सिलसिला जारी है। आटकलों और आकलनों बाजार गर्म है। सियासी दंगल में उंट किस करवट बैठेगा लोगों में कयासों का दौर जारी है।

एम. अफसर खान सागर

Saturday, January 14, 2012

वो कटी पतंग

पस्त पड़ती पतंगों की परवाज

सुई.... ई... ई...! आई नीचे! हुर्र.... चढ़ जा उपर। खींच मंझा खींच। नक्की कटे न पाये। ढील और ढील। थोड़ा बायें। एकदम दायें लाओ। तू ने उसकी पतंग काट ही दी। जा मेरी तितली जा। आसमान से भी तू पार जा।
ये संवाद पतंगबाजों क बीच के हैं। जो कभी शिव की नगरी काषी के फक्कड़ों के बीच खूब सुनाई देती थी। क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बूढ़े सभी मगन रहते थे। एक से एक पतंग और उससे बड़े पतंगबाज। छत हो, खुला मैदान या गंगा पार रेती। हर जगह इनकी टोली मस्ती करती नजर आती। और हां... देखने वालों की बड़ी जमात लुत्फअंदोजी में मशगूल रहा करती थी।
बदलते जमाने और शौक की भेंट चढ़ गई पतंगबाजी। न वह उत्साह रहा, न अब वह जूनून। न ही अब बाजी पर लड़ाई जाती हैं पतंगे। छतों पर वो कटा.... वो कटा की आवाज भी अब नहीं सुनाई देती और न ही गली, मुहल्लों में कटी पतंग लूटने वाले बच्चों की फौज दिखाती है। एक वक्त था कि जमकर पतंगबाजी हुआ करती थी। हजार-हजार रूपये पेंच की बाजी पर पतंगें लड़ाई जाती थीं। इसके लिए पतंगबाज रात-रात भर जागकर मंझा तैयार करते थे। और फिर क्या... सारा दिन पतंग लड़ाने में ही बीत जाया करता था। इसके अलावा छतें भी पतंगबाजों से गुलजार रहतीं थीं। पतंग तो भगवान राम भी उड़ाया करतें थें, ऐसा माना जाता है।
आखिर क्या वजह हैं कि पतंगबाजी जो कभी नवाबों का शौक हुआ करती थी तथा बच्चे, जवानों के साथ बूढ़े भी हाथ आजमाते थें, आज बजूद खोती जा रही है? बनारस के मशहूर पतंग बनाने व बेचने वाले छोटन मियां बताते हैं कि अब बहुत लोग पतंग नहीं खरीदते। बड़े इसे तुच्छ समझते हैं तो बच्चे अपना धन सीडी, टीवी व सीनेमा पर खर्च करना ज्यादा पसंद करते हैं। पतंगबाजी के लिए खुले मैदान भी तो नहीं रहे अब। एक वक्त था कि छोटन मियां के बनाये पतंग, उनके कुशल कारीगरी व खूबशूरती के लिए जाने जाते थे, मगर आज वे खुद पतंग की कटी डोर के समान लाचार हैं। अब लोगों में पतंग के प्रति उतना उत्साह भी नहीं रहा। गुजरे दिनों को याद करते हुए छोटन मियां बताते हैं कि एक खास सीजन हुआ करता था पतंगबाजी का, पतंग उड़ाने वाले शौकीन लोग उनकी दुकान पर उमड़ जाते और दिन भर रंग-बिरंगी पतंगों व मंझों के बीच मैं उलझा रहता, आमदनी भी खूब होती। मगर अब तो हर आदमी जिंदगी की भाग दौड़ में इतना तेज रफतार अख्तियार कर लिया है कि पतंग जैसी नाजुक चीज उसने पैरों से कुचलकर दम तोड रही है। अब वो जमाना गया, न ही वे शौकीन रहे और न ही वो खरीदार। बस दो पैसा मिल जा रहा है। शौक है, छोड़े नहीं छूटती... बस लगा हूं।


मनोरंजन के नित नये बदलते संसाधनों ने पतंगबाजी के इस कला को गुजरे जमाने की शौक तक ही महदूद की दिया है। एक सुनहरा वक्त था जब पतंग आम लोगों के जीवन में जरूरियात की चीजें में शरीक था, कमोबेश बच्चों में तो जरूर। पतंग और इसके परवाज पर फिल्म, गाने और न जाने कितने साहित्यक रचनाएं रची गईं। प्राचीन भारतीय संस्कृति के वाहक के रूप में पतंग त्यौहार की शान है। वक्त का बदलता मिजाज कहें या आधुनिक होता समाज, आज थम सी गयी है पतंग की परवाज। अब जो पतंग उड़ाते हैं वो भी किसी खास मौकों व त्यौहार पर। बस घुटती सांसों की माफिक, न तो वो परवाज और न ही वो रफतार रहा। हां, इसके कलेवर में बदलाव जरूर आया है। पडोसी मुल्क चीन ने हमारे हाथों से हमारी पतंगें भी छीन ली है। छोटन मियां, लालू काका, रमजान चाचा की तितली, चम्पई, फर्राटा, आसमानी अब नहीं मिलता। चीन की तितली, उल्लू और पैराशूट जो उनपर हाबी हो गया इससे जुड़े पेशेवर कलाकारों की आमदनी भी समाप्ती के कगार पर है। विदेशी चमकदार के आगे देशी लोगों को कहां भा रहा है। वजूद को बचा पाने की जद्दो-जेहद में ये कलाकार पतंगे के मंझे की फलक से कट कर हलाक होते नजर आ रहे हैं।
आखिर इंटरनेट, वीडियोगेम, सी.डी., टी.वी. के ज्वर में क्या क्या तबाह होगा? मनोरंजन के परम्परागत साधन, प्राचीन संस्कृति, परम्परा या भारतीय समाज? रेव पार्टीयां ही मनोरंजन के असल साधन हैं या शराब से सराबोर युवाओं की महफिलें? क्या बच्चों की आखों पर चढ़े मोटे चश्में ही इनकी देन है या टूटती परम्परागत सामाजिक ढ़ांचा। समाज में खुलेआम होता नंगा नाच ही इन मनोरंजक साधनों की देन है! हम कब चेतेंगे... मिट जाने के बाद। आखिर क्यों पस्त पड़ रही है पतंगों की परवाज।

एम अफसर खान सागर

Tuesday, January 10, 2012

संकट

गायब होते गिद्ध

मुझे अच्छी तरह याद है, अभी कुछ ज्यादा अरसा भी नहीं गुजरा है गिद्ध बड़ी आसानी से दिखाई देते थें मगर आजा हालात बदल गये हैं, अब ढ़ूढ़ने से भी नहीं दिखते। हमारे घर के पीछे एक बड़ा तालाब है, जिसे गांव वाले न जाने क्यूं खरगस्सी कहते हैं वहीं ताड़ के दर्जन भर पेड़ कतारबद्ध खड़े हैं। गवाह हैं ताड़ के वे पेड़ जो कभी गिद्धों का आशियाना हुआ करते थें। अक्सर शाम के वक्त डरावनी आवाजें ताड़ के पेड़ों से आती मानों कोलाहल सा मच जाये। मालूम हो जैसे रनवे पर जहाज उतर रहा हो। मगर अब वो दिन नहीं रहे। आज एक भी गिद्ध नहीं बचा। लगभग ऐसे ही हालात अन्य जगहों के भी हैं।
गिद्ध प्रकृति की सुन्दर रचना है, मानव का मित्र और पर्यावरण का सबसे बड़ा हितैषी साथ ही कुदरती सफाईकर्मी भी। मगर आज इनपर संकट का बादल मंडरा रहा है। हालात अगर इसी तरह के रहें तो अनकरीब गिद्ध विलुप्त हो जायेंगे। एक वक्त था कि मुल्क में गिद्ध भारी संख्या में पाये जाते थे। सन् 1990 में गिद्धों की संख्या चार करोड़ के आसपास थी। मगर आज यह घटकर तकरीबन दस हजार रह गयी है। सबसे दुःखद पहलू यह है कि मुल्क में बचे गिद्धों की संख्या लगातार तेजी से घट रही है। वैसे तो गिद्ध मुल्कभर में पाये जाते हैं मगर उत्तर भारत में इनकी संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है। भारत में व्हाइट, बैक्ड, ग्रिफ, यूरेषियन और स्लैंडर प्रजाति के गिद्ध पाये जाते हैं।
गिद्धों का प्रमुख काम परिस्थितकी संतुलन को बनाये रखना है। मुल्क के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में मृत पशुओं को खुले मैदान में छोड़ दिया जाता है। जहां गिद्धों का झुण्ड कुछ ही देर में उसका भक्षण करके मैदान साफ कर देते हैं। मृत जानवरों का मांस ही गिद्धों का प्रमुख भोजन है।
पशु वैज्ञानिकों का मानना है कि गिद्ध हजार तरह के भयंकर बीमारीयों से बचाव में अहम भूमिका निभाते हैं। वैसे तो गिद्ध मानव के साथी हैं मगर मानवीय लापरवाही की वजह से इनके अस्तित्व पर संकट मण्डराने लगा है। आखिर क्या वजह है कि मुल्क में अचानक गिद्धों की संख्या इतनी कम हो गई ? अगर गौर फरमाया जाए तो गिद्धों के खात्मे के लिए अनेक वजह हैं मगर पशुओं के इलाज में डाइक्लोफिनाक का इस्तेमाल प्रमुख कारण है। असल में डाइक्लोफिनाक दर्दनाषक दवा है जोकि पषुओं के इलाज में काफी कारगर है। अगर इलाज के दौरान पषुओं की मौत हो जाती है तो उसे गिद्ध खाते हैं जिससे गिद्धों के शरीर में डाइक्लोफिनाक पहुंच जाता है। डाइक्लोफिनाक की वजह से गिद्धों के शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ जाती है, गिद्ध इसे मूत्र के द्वारा शरीर से बाहर नहीं निकाल पाते जिससे उनकी किडनी खराब हो जाती है जो उनके मौत की जिम्मेदार बनती है।


वैष्विक स्तर पर गिद्धों की घटी संख्या पर चिंता जताई जा रही है। कई मुल्कों ने तो डाइक्लोफिनाक पर रोक लगा रखा है। भारत में गिद्धों की घटती संख्या के लिए डाइक्लोफिनाक को जिम्मेदार माना जा रहा है। भारत सरकार ने भी डाइक्लोफिनाक का पषुओं पर इस्तेमाल प्रतिबंधित कर रखा है। गिद्धों की घटती संख्या पर सरकार भी काफी चिंतित है इसलिए इनके संरक्षण व प्रजनन के लिए कई योजनाएं चलायी जा रही हैं। जिसमें विदेषों से भी मद्द मिल रहा है। ब्रिटिष संस्था राॅयल सोसाइटी आॅफ बर्ड प्रोटेक्षन ने इंडो-नेपाल बार्डर को ‘‘ डाइक्लोफिनाक फ्री जोन ’’ बनाने का बीड़ा उठाया है। जिसमें भारत व नेपाल की सरकारें सहयोग करेंगी। इस योजना के तहत दो किलोमीटर तक क्षेत्र को 2016 तक डाइक्लोफिनाक मुक्त करने का प्लान है। इसके लिए उत्तर प्रदेश में पांच जोन बनाये गये हैं, जिसमें पीलीभीत-दुधवा क्षेत्र, बहराईच का कतरनिया घाट प्रभाग, बलरामपुर का सोहेलवा और महाराजगंज जिले का सोहागी बरवा क्षेत्र शामिल है।
तेजी से विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाने के लिए सरकार देश में तीन गिद्ध संरक्षण प्रजनन केन्द्र चला रही है, जो पिंजौर हरियाणा, राजाभातखावा पष्चिम बंगाल रानी असम में स्थापित हैं। मगर ये सभी योजनाएं गिद्धों को बचाने में नाकाफी साबित हो रही हैं। जंगल के इस सफाईकर्मी की घटती संख्या से वन्य जीवों समेत मानव की जान पर खतरा मंडराने लगा है, जिससे वाइल्ड लाइफ प्रेमी काफी चिंतित हैं। मुल्क के शहरी ग्रामीण इलाकों में अगर गिद्धों की चहल-पहल देखनी है तो इनके संरक्षण के लिए हमें आगे आना होगा। नही तो मानव का सच्चा हितैषी विलुप्त हो जाएगा और हमें तरह-तरह की भयंकर बीमारियों से दो चार होना पड़ेगा। जिसके लिए हम खुद जिम्मेदार होंगें।

एम. अफसर खां सागर