Wednesday, March 9, 2011

व्यथा

डूबते..... डुगडुगीबाज
  • एम अफसर खान सागर


बाअदब.... बामुलाहिजा...., होशियार! बादाशाह सलामत के हुक्म से फलां बिन फलां को जिलाबदर किया जा रहा है। फलां को हिदायत दी जाती है कि फरमान जारी होने के चौबीस घन्टे के अन्दर ठीकाना छोड़ वरना....... एक दौर था जब मुनादी की शक्ल में हर खास आम के बीच गूंजती सल्तनत की यह हिदायत उस शख्स के लिए पानी में डूब मरने जैसी शर्मिंदगी का बायस हुआ करती थी जिसके नाम की डुगडुगी पिटा करती थी। एक वक्त था कि सामाजिक भर्त्सना से जुड़े दंड का यह तरीका खास चलन में हुआ करता था, जिसके वाहक होते थे डुगडुगीबाज।
मुगलों के दौर में यह चलन पूरे शबाब पर था। छोटी से छोटी और बड़ी से फरमानें सूचना डुगडुगी बजाकर रियाया तक पहुंचायी जाती थीं। डुगडुगी बजाकर ही राजे-रजवाड़ों के सड़कों से गुजरने इजलासों में आने की सूचनाएं दी जाती थीं। मसलन, होशियार.... खबरदार.....! बादशाह सलामत तशरीफ ला रहे हैं। निजाम बदला तो इन्तजाम भी बदल गया। गुमल दफन हुए अंग्रेज आये। डुगडुगी बजी मगर मकसद बदल गया। इसके बजने का सबब होता कि किस गांव में कौन बगावत पर उतर आया है और उसे क्या सजा मुकर्रर हुई। मुल्क आजाद हुआ, युग बदला और फिर डुगडुगी का इस्तेमाल अपराधियों के खिलाफ होने वाले जिलाबदर कुर्क जैसे फैसलों की सूचना देने में की जाने लगी। उसके अलावा निजी तौर पर लोग बच्चे मवेशियों के गायब होने की सूचना के साथ दंकान सामानों के प्रचार तक में डुगडुगी का प्रयोग करने लगें।
आजादी के मुल्क में विकास का तेज दौर शुरू हुआ। प्रचार प्रसार के संसाधनों में आधुनिकता आयी। राजा-रवाड़े वक्त के औराक बन गये। दौर गुजरने के साथ ही डुगडुगी पीटने वाले भी नजर अन्दाज कर दिये गये। अमूमन डुगडुगीबाजों का वास्ता गन्दीबस्तियों और गरीब घरों से था मगर ये अच्छे-अच्छों के पानी उतारते फिरते। जैसे-जैसे पुरानी परम्परायें टूंटी वेसे-वैसे ये डुगडुगीबाज टूटते चले गये। किसी समय बनारस की शान और मशहूर मारूफ डुगडुगीबाज होरी लाल गुमनामी में परलोक सिधार गये। डुगडुगी तो दूर उनके लाश पर फकत आंसू बहाने वाले नहीं मिले। होरी लाल मौके की नजाकत देखकर मुनादी करने में माहि थे। खासकर सामाजिक भर्त्सनो जैसे मामलों में तो उनका अन्दाज--बयां सुनने लायक था। अंग्रजी की इबारतें बड़ी फर्राटा से बोाल करते थें, मगर जिन्दगी के अन्तिम वक्त में इस डुगडुगीबाज को फकत सयाह अन्धेरों के कुछ नसीब नहीं हुआ।
अब गिने-चुने लोग ही डुगडुगी बजाते हैं। अक्सर वही जो 75 के पार हैं। यदा-कदा बिजली ,पानी पुलिस विभाग को इनकी हाजत आन पड़ती है। या कभी-कभार ग्राम सभा की खुली बैठक के लिए इन्हे मुनादी का जिम्मा दिया जाता है। यही वजह है कि धन्धे में आयी मन्दी के कारण ये लोग इसको बाय-बाय करने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। वक्त के बदलते मिजाज ने इन डुगडुगीबाजों की जिन्दगी को डगमगा दिया है। गुमनागी मुफलिसी के स्याह अन्धेरे में डुबने लगे हैं ये।
इधर फिर पुलिस महकमे में अपराधियों की सम्पत्ति जब्त या कुर्क करने की कार्यवाही पर डुगडुगी पीटवाने का प्रचलन शुरू हुआ है, मगर अब डुगडुगीबाजों का टोटा पड़ा है। इसलिए कुछ थानेदार साहबान तो मजदूरों को पकड़कर कनस्टर पिटवा रहे हैं। कहीं-कहीं डुगडुगी की जगह नगाड़ों से काम चलाया जा रहा है। आखिर क्यों पीटे ये डुगडुगी, जब इनके पेट ही भर पाता हो। कभी भी इन डुगडुगीबाजों को गर्व सम्मान की जिन्दगी नसीब नहीं हो पायी। हमेशा मुफलिसी ने इन्हे घेरे रक्खा। इनका अब कोई पुरसे हाल नहीं रहा। लग तो ऐसा रहा है कि इन जर्जर काया वाले डुगडुगीबाजों के साथ ही डुगडुगी की प्राचीन कला दफन हो जायेगी। शायद अनकरीब ही खत्म हो जायें ये डुगडुगीबाज और डूब जाये डुगडुगी की आवाज। सचेत रहिए, अगर कहीं दिख जावें ये तो जरूर सुन ले इनकी फरियाद। ये डुगडुगीबाज शायद लगायें ये आवाज, होशियार..., खबरदार...! अब नहीं आयेगा डुगडुगी का अलम्बरदार।
इनके हालात पर कवि नीरज की ये पंक्तियां बरबस ही जेहन में ताजा हो जाती हैं-

मेरे घर खुशी आती तो कैसे आती
उम्र भर साथ रहा दर्द महाजन की तरह।

1 comment:

  1. जानकारी से भरा सुन्दर आलेख..डुगडुगी बाजों का दर्द बहुत मार्मिकता से प्रस्तुत किया..

    ReplyDelete