Sunday, November 11, 2012

सागर उवाच

कैटल क्लास की दीवाली

 

शाम के वक्त चैपाल सज चुकी थी। रावण दहन के बाद मूर्ति विसर्जित कर लोग धीरे-धीरे चैपाल की जानिब मुखातिब हो रहे थे। दशहरा वाली सुबह ही काका ने जोखन को पूरे गांव में घूमकर मुनादि का हुक्म दे दिया था कि सभी कैटल क्लास के लोग विसर्जन के बाद दीवाली के बाबत चैपाल में हाजिर रहें। काका पेशानी पर हाथ रख कर शून्य में लीन थे कि जोखन ने आत्मघाती हमला बोल दिया... कौने फिकिर में लीन बाड़ा काका, चुप ससुरा का धमा चैकड़ी मचा रखले बाड़े... काका ने जोखन को डांटते हुए कहा। माहौल धीरे-धीरे धमाकों की गूंज में तब्दील हो चुका था। लोगों की कानाफूसी जोर पकड़ चुकी थी ऐसे में जोखन तपाक से बोल पड़ा... हे काका! अबकी दीवाली पर न त चाउर-चूड़ा होई नाहीं त घरीय-गोझिया क कउनो उम्मीद बा फिर तू काहें दीवाली के फिकिर में लीन बाड़ा। जोखन की बात से पूरा चैपाल सहमत था। माहौल में सियापा छा चुका था सभी लोग काका की तरफ ऐसे ध्यान लगाए बैठे थे मानो वो गांव के मुखिया नहीं मुल्क के मुखिया हों।
बात अगर त्यौहारों की हो तो उसमें चीनी का होना वैसे ही लाजमी है जैसे ससुराल में साली का होना वर्ना सब मजा किरकिरा। काफी देर बाद काका ने चुप्पी तोड़ी... प्यारे कैटल क्लास के भाईयों अबकी दीवाली में चीनी, चावल, चूड़ा, तेल, घी, मोमबत्ती व दीया में सादगी के लिए तैयार हो जाइए। बदलते वक्त के साथ हमें भी नई श्रेणी में रख दिया गया है, जहां हम पहले जनता जर्नादन की श्रेणी में थें मगर अब कैटल क्लास में आ गये हैं। ...तो अब हमें चीन, चावल, चूड़ा, गुझिया की जगह घास-भूसा, चारा से काम चलाना होगा ? जोखन ने सवाल दागा। आपने सही समझा... मैडम व सरदार जी के दौर में हमें नतीजा तो भुगतना ही पड़ेगा न! चीनी इस त्यौहारी मौसम में मीठान न घोलकर हमसब के घरों में जहर घोलने पर जो आमादा है। ऐसे में घरीया व गुझिया के कद्रदानों को चीनी की बेवफाई से शुगर का खतरा भी कम हो गया है। तभी तो पास बैठे अश्विनी बाबू ने एक मसल छेड़ी-

जश्न-ए-पूजा, जश्न-ए-दीवाली या फिर हो जश्न-ए-ईद
क्या मनाएंगे इन्हे? जो हैं सिर्फ चीनी के मूरीद।

माहौल में कुछ ताजगी का एहसास हुआ फिर बात आगे बढ़ चली। हां तो कैटल क्लास के भाईयों इस दीवाली हमारे घरों में अंधेरे का काला साम्राज्य ठीक उसी तरह कायम रहना चाहिए जैसे केन्द्र में यूपीए व वैष्विक बाजार में मंदी तथा हमारे मुल्क में महंगाई का है। सो हम सब सादगी का परिचय देने हुए न तो तेल-घी का दीप जलायेंगे न ही कैंडील। इस बार दीप नहीं दिल जलेंगे खाली, सादी होगी अपनी दीवाली।
हां तो कैटल क्लास के भाईयों आप पूरी तरह से तैयार हो जाएं अबकी दीवाली में घास-भूसा और चारा का लुत्फ उठाने के लिए तबेले के घुप अंधेरे में दीवाली को मनाने के लिए। हे काका... चारा त लालू भईया चाट गईलन, जोखन के इस सवाल पर चैपाल का माहौल धमाकाखेज हो गया। कानाफूसी व बतरस के बीच कोई कहता... अरे भाई कैटल क्लास में भी मारा-मारी है तो कोई लालू को कोसता, बात निकली है तो दूर तलक जायेगी सो काका ने माहौल को किसी तरह दीवालीया बनाया। महंगाई और मंदी का दौर है हम सबकी तो दीवाली सादी मनेंगी मगर कोइ शहर में जाकर भल मानूसों की दीवाली भी देखा है कैसे मनती है उनकी दीवाली? भौचकियाए लोग आपस में खुसर-फुसर करने लगे। सबकी निगाह अश्विनी बाबू पर जा टिकी। वहां तो हर रोज ही दशहरा, दीवाली मनता है काका। शहर में माल, बीयर बार, रेस्तरां, होटल आदि जगहों पर हमेशा होली व दीवाली का माहौल रहता है क्योंकि वहां आमदनी पैसा-रूपया नहीं डालर-पाउंड में होता है। तो वहां न दीवाली मनेगी कि यहां सूखे नहर व अकाल के माहौल में। फिर अश्विनी बाबू ने फरमाया-

कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया
बात निकली है तो हर इक बात पे रोना आया।

इसके बाद चैपाल में काका का फैसला आया... अबकी दीवाली हम कैटल क्लास के लोग न तो चूड़ा-घरिया के चक्कर में रहेंगे ना ही दीया-बाती के। पूरे सादगी के साथ मनेगा दीवाली। न पटाखा, न धमाका सिर्फ और सिर्फ सियापा व सन्नाटा। शास्त्री व बापू के आदर्शें पर चलकर मंत्रीयों व संतरीयों को करारा जवाब देना है। सादगी का लंगोट पहनकर मैडम, मनमोहन व महंगाई का मुकाबला करना है! न पकवान, न स्नान और न ही खानपान। खालीपेट रहकर देश की अर्थव्यवस्था को सुधारना है साथ ही शुगर व शरद बाबू के प्रकोप से भी बचना है। रात में घुप अंधेरा रहे ताकि आइल सब्सीडी का बेजां नुक्सान न हो। दीप की जगह दिल जलाना है, सादगी से दीवाली मनाना है। इसके लिए कैटल क्लास के लोग तैयार हैं ना...? काका के आह्वाहन पर सबने हामी भरी। रात के स्याह तारीकी में जलते दिलों के साथ घर की जानिब कैटल क्लास के लोग हमवार हुए।

                                                                                                                     एम. अफसर खां सागर

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