Tuesday, December 22, 2020

अल्विदा आसिफ

राजकीय सम्मान के साथ एसएसबी जवान आसिफ सुपुर्द-ए-खाक
 
धानापुर शहीद पार्क में आसिफ को राजकीय सम्मान देते एसएसबी के जवान।

उत्तर प्रदेश के चन्दौली जनपद के धानापुर निवासी सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के जवान आसिफ खान (28 वर्ष) पु़त्र इसरार खान की सड़क हादसे में रविवार 20 दिसम्बर 2020 को लखनऊ के टेढ़ी पुलिया के पास रोड एक्सिडेंट में मौत हो गई। आसिफ की पोस्टिंग लखनऊ के मोहनलाल गंज में थी। सोमवार को तड़के जब आसिफ के मौत की खबर लोगों को मिली तो पूरे इलाके में मातम सा छा गया। परिवार वालों का रो-रो कर बुरा हाल हो गया। धानापुर पठानटोली स्थित उनके आवास पर शोक व्यक्त करने वालों का हुजूम इकट्ठा हो गया। चार भाई में आसिफ तीसरे नम्बर पर थें, और परिवार का पूर बोझ उनके कंधों पर ही था। मिलनसार व्यक्तित्व के धनि आसिफ लोगों के आंखों का तारा था। देशभक्ति के जज्बे से ओत-प्रोत आसिफ पढ़ाई के दोरान ही देश सेवा के लिए तैयारी करने लगा था। जिन्दगी के उसका एक ही सपना था देश के लिए कुछ कर गुजरना। हादसों से मानों आसिफ का याराना था, उनके बड़े भाई मोहसिन खान बताते हैं कि जम्मू में पोस्टिंग के दारान उनकी गाड़ी सौ फिट गहरी खाई में जा गिरी थी, जिसमें वो गम्भीर रूप से घायल हो गये थे। दूसरे हादसें में उनके कमर में काफी चोटें आईं थी, जिसका आपरेशन भी हुआ था। फिर भी उनके जज्बे में कोई कमी नहीं आयी थी। 
 

                                  धानापुर शहीद पार्क में आसिफ के अंतिम विदाई में उमड़ा जनसैलाब।

मंगलवार 22 दिसम्बर को भोर में आसिफ एसएसबी की गाड़ी से घर पहुंचा। चिर निद्रा में लीन आसिफ किसी से बात नहीं कर सकता था, लोग उसके दीदार को बेकरार थें मगर वो तो उस सफर पर निकल गया था, जहां से लोग कभी नहीं आते। घर, गांव व इलाके के लोगों का गम से हाल बेजार था। दोस्त, अहबाब, समाजी व सियासी लोगों का मजमा था। अंतिम बिदाई देने वालों की आखें नम थीं। दिन में दो बजे आसिफ को लम्बे काफिले के साथ सबसे पहले कस्बा स्थित शहीद पार्क ले जाया गया। जहां जिला प्रशासन सहित विभागीय लोगों ने गार्ड आफ आनर दिया। इसके बाद जगनियां स्थित कब्रिस्तान में आसिफ को को सुपुर्द-ए-खाक किया गया। इस दौरान घर, परिवार, गांव के लोगों के साथ एसडीएम प्रदीप कुमार, सीओ भवनेश चिकारा, सपा के राष्ट्रीय सचिव व पूर्व विधायक मनोज कुमार सिंह डब्लू, सपा प्रवक्ता मनोज काका, पूर्व सैनिक अंजनी सिंह, राजेश यादव, विधायक प्रतिनिधि अन्नू सिंह, प्रधान प्रतिनिधि रामशरण यादव गुड्डू, नैढ़ी प्रधान अंसार अहमद, भाजपा जिला महामंत्री सुजीत जायसवाल, हसन खान, सुहेल खान जन्नत, रूस्तम खान, सत्यदेव यादव, सहित भारी संख्या में क्षेत्रीय लोग मौजूद रहे। 

                                                            एसएसबी जवान आसिफ खान
 

देश सेवा के साथ समाज के लिए भी आसिफ कुछ कर गुजरने का माददा रखता था, गांव हो या दोस्त यार सबके लिए हमेशा खड़ा रहता। जब भी कोई उसे किसी मकसद के लिए पुकारता वो हाजिर रहता। बड़ों का सम्मान और छोटों से प्यार करना कोई उससे सीखे। कहते हैं अच्छे लोगों को ईश्वर जल्द अपने पास बूला लेता है। तकरीबन दो साल पहले ही आसिफ की शादी हुई थी, पत्नि और आठ महीने की छोटी बच्ची है। क्या उम्र ही थी उसकी। मुझे याद है नौकरी पाने से दो-तीन साल पहले आसिफ मेरे साथ लखनऊ के मोहिबुल्लापुर इलाके में दो दिन के लिए गया था। यह वही इलाका है जहां आसिफ का एक्सिडेंट हुआ। हम लोग दो दिन तफरीह किए, बेहद उत्साही व मनोरंजक स्वभाव का इंसान था। उसके जाने की खबर जब मुझे रात 11 बजे मिली तो मैं स्तब्ध हो गया। पूरी रात सो नहीं सका। यकी नही नहीं हुआ कि आसिफ हमें छोड़कर चला गया। अभी कुछ दिन पहले ही गांव के बाहर परती पर मिला था, अदब से सलाम किया। हालचाल हुआ। 


अल्विदा मेरे भाई आसिफ... तेरा यूँ जाना खल गया!


यह कोई उम्र थी जाने की जो तुम यूँ मुंह मोड़ कर हमसे चले गए। अभी कुछ दिन पहले ही तो सलाम-बन्दगी हुई थी परती पर। हमें यकीन ही नहीं था कि यह मुलाकात आखिरी होगा। यूँ तो तुम उम्र में छोटे थे मगर जिम्मेदारी की बोझ सबसे ज्यादा तुम्हारे मजबूत कांधे पर ही था। मुझे आज भी याद है... जब तुम एसएसबी में भर्ती नहीं हुए थे, तो हम लोग अक्सर गांव के बाहर परती पर मिलते। सालों पहले एक बार मैं तुम्हे अपने साथ लखनऊ ले गया था, उसी इलाके में जहाँ तुमने जिंदगी की आखिरी सांस ली! मोहिबुल्लापुर में ही हम एक रात आई वर्ल्ड पत्रिका के मालिक डॉ. नफीस अहमद के यहां रुके थे, उनके साथ हमने लखनऊ की सैर भी किया। फिर तुम कुछ साल बाद नौकरी में चले गए, रास्ता अलहदा हो गया। आज तुम्हें याद कर आंखे नम हो गईं। आसिफ बेहद मिलनसार व्यक्तित्व का धनी था, सबको ऐसा भाई सरीखा पड़ोसी मिले। अल्लाह रब्बुल इज्जत तुम्हे जन्नतुल फिरदौस में आला मुकाम अता करें और घर वालों को सब्र-ए-जमील अता फरमाएं!


अब हर लम्हा तुम्हारे बिना सूना सा लगेगा,
अलविदा कहकर तुम्हारी यादों में जीना पड़ेगा।

 

Saturday, November 14, 2020

अभिमत

बिहार चुनाव में एआईएमआईएम के उभार से बेचैनी क्यों?




बिहार विधानसभा चुनाव-2020 में एआईएमआईएम ने सीमांचल के पांच सीटों पर जीत हासिल कर सेक्युरल दलों में बेचैनी पैदा कर यिा है तभी तो नतीजे आने के बाद सो-कॉल्ड सेकुलर जमातों और उनके हिमायतियों ने एआईएमआईएम नेता व सांसद असदुद्दीन ओवैसी पर वोट कटवा होने तोहमत लगाने की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए लानत भेजने का काम बखूबी कर रहे हैं! भारतीय लोकतंत्र ने सभी राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने का अधिकार दे रखा है! जिसके तहत राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दल राज्य विधानसभाओं व लोकसभा के लिए अपने उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारते हैं और जनता उन्हें चुनती है या खारिज कर देती है! ठीक उसी तरह इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने प्रतिभा किया और जनता ने अपना फैसला वोट के जरिये सुनाया।
एनडीए गठबंधन को बहुमत मिलने के बाद विपक्ष और उसके हिमायती। एआईएमआईएम और उसके नेता को वोट कटवा और भाजपा का एजेंट की संज्ञा देते फिर रहे हैं! सवाल उठता है कि आखिर हर बार विपक्ष अपनी विफलता का ठीकरा असदुद्दीन ओवैसी पर ही क्यों फोड़ती है? आखिर असदुद्दीन ओवैसी ही भाजपा के एजेंट कैसे हो जाते हैं? पड़ताल करें तो आसानी से मालूम होगा कि एआईएमआईएम के चुनाव लड़ने मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण से इनकी दाल नहीं गल पाती है। अगर बात सेकुलरिज्म की करें तो 2015 के चुनाव में नीतीश कुमार के जेडीयू के साथ लालू यादव की पार्टी आरजेडी व कांग्रेस ने मिल कर चुनाव लड़ा व जीता भी मगर नीतीश कुमार ने पलटी मारते हुए भाजपा संग सरकार बना लिया। 2015 से पहले भी नीतीश कुमार भाजपा के साथ रह चुके हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस ने शिवसेना के खिलाफ चुनाव लड़कर उसी के साथ सरकार में है! ऐसे में वो महागठबंधन में आये तो दाग धूल जाते हैं और असदुद्दीन ओवैसी एजेंट हो जाते हैं! असदुद्दीन ओवैसी ने एक इंटरव्यू में कहा कि उनकी पार्टी ने इस बार महागठबंधन में शामिल होने की कोशिश किया मगर उसे नजर अंदाज कर दिया गया। तो एक राजनैतिक दल होने के नाते उन्होंने चुनाव लड़ा और 5 सीटों पर कामयाब रहे। जीतन राम मांझी और मुकेश साहनी की पार्टीयों ने भी 4-4 सीटें जीती तो ओवैसी कैसे वोट कटवा हुए, वोट लुटवा क्यों नहीं?
क्या लोकतांत्रिक देश में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं है? अगर इस मुल्क में नरेन्द्र मोदी, योगी आदित्यनाथ, गिरिराज सिंह, साक्षी महाराज, कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर को चुनाव लड़ने और लड़ाने का अधिकार है तो फिर असदुद्दीन ओवैसी को क्यों नहीं? तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, मायावती, चिराग पासवान, जीतनराम मांझी, मुकेश साहनी सरीखों को चुनाव लड़ने-लड़ाने का अधिकार है तो फिर असदुद्दीन ओवैसी क्यों नहीं चुनाव लड़-लड़ा सकते हैं? आप असदुद्दीन ओवैसी के सियासी नजरिए से भले इत्तेफाक न रखते हों मगर एक दल के नाते उन्हें चुनाव में शामिल होने और गठबंधन करने से सिर्फ इसलिए कि सेकुलर वोट के बिखराव के नाम पर नहीं रोक सकते!
असदुद्दीन ओवैसी सीमांचल के मुस्लिम वोटरों को समझाने में शायद कामयाब रहे कि धार्मिक व जातीय गोलबंदी के जरिये सियासत करने वाले दलों ने सेकुलरिज्म के नाम पर मुस्लिम वोटों की फसल बहुत काटी है मगर मुस्लिमों को सियासी भागीदारी उतनी नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए! मुस्लिम कयादत भी उन्हें मंजूर नहीं! बिहार में अगर देखा जाए तो AIMIM ने 20 सीटों पर प्रत्याशी उतारे जिसमें 5 जीते, 9 जगहों पर महागठबंधन और 6 पर एनडीए की जीत हुई जबकि 70 सीट पर कांग्रेस चुनाव लड़ी 19 प्रत्याशी जीते बाकी एनडीए गठबंधन! कांग्रेस नेता ऋषि मिश्रा ने खुद आरोप लगाया कि ‘अध्यक्ष मदन मोहन झा के वजह से आज हमारी सरकार नहीं बनी। 40 वर्षों से आप मिथिलांचल में राजनीति कर रहें। आरजेडी ने आपको 70 सीट दी और आप 19 सीट ही जीतें, आप से अच्छा प्रदर्शन लेफ्ट पार्टी करती है। मेरा सोनिया जी से निवेदन है कि आप हम कांग्रेसियों को बचा लीजिए।’
ऐसे में यह कहना कि असदुद्दीन ओवैसी वोट कटवा हैं मेरे हिसाब से ठीक नहीं बल्कि बिहार में ओवैसी वोट लुटवा साबित हुए हैं! यही सवाल कांग्रेस से भी होनी चाहिए कि मध्य प्रदेश और गुजरात के उपचुनाव के परिणाम क्या हैं जबकि ओवैसी की पार्टी ने वहां चुनाव भी नहीं लड़े? राष्ट्रीय स्तर पर सियासत में मुस्लिम कयादत के खाली जगह को भरने की कोशिश असदुद्दीन ओवैसी पूरे दमखम के साथ करने में जुटे हैं। जिससे मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण से विपक्षी दलों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। ऐसे में यह देखना है कि एआईएमआईएम बंगाल और उत्तर प्रदेश के आम चुनाव में क्या गुल खिलाती है?
    

Monday, August 19, 2019

सोशल मीडिया में बदजुबान होती अभिव्यक्ति की आजादी

फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप्प सरीखे सोशल साइट्स ने वैश्विक स्तर पर लोगों को करीब आने का मौका दिया है तथा एक-दूसरे के विचारों और संस्कृति से परिचित भी कराया है। संचार का सदव्यवहार संवाद और संस्कृतियों के प्रसार का हमेशा से आधार रहा है। जिस तरह से सोशल मीडिया का विस्तार हुआ है, लोगों के विचारों में खुलापन आ गया है। सोशल मीडिया ने पूरे विश्व में लोगों को आन्दोलित सा कर दिया है। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक मुद्दे सोशल मीडिया पर अक्सर बहस के विषय बनते रहते हैं। राजनेता, खिलाड़ी, सिनेजगत के कलाकार सहित युवा वर्ग में सोशल मीडिया के प्रति काफी रूझान है। हर छोटे व बड़े मुद्दों पर अपनी बात या राय जाहिर करने का यह बेहतर मंच साबित हुआ है मगर वैचारिक अतिवाद की वजह से इसका बेजां इस्तेमाल भी खूब हो रहा है। इस वैचारिक अतिक्रमण ने अभिव्यक्ति की आजादी को कुछ हद तक बदजुबान बना दिया है।
सोशल मीडिया का उपयोग संवाद के माध्यम के रूप में किया जा रहा था तो कुछ हद तक ठीक था मगर राजनीति के अखाड़ा में तब्दील होने के बाद यह आरोप-आपेक्ष का माध्यम तो बना ही इसके जरिए राजनीतिक दलों के समर्थक गाली-गलौज भी करते नजर आ रहे हैं। गुजरात में पटेल आन्दोलन और नोएडा के दादरी की घटना सहित विभिन्न संजीदा घटनाओं के बाद तनाव के लिए सोशल मीडिया पर सवाल खड़ा किया जाना लाजमी है। यह सवाल सोशल मीडिया पर नहीं बल्कि उसके इस्तेमाल करने वालों पर है। हाल के दिनों सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों पर धर्म विशेष, पार्टी विशेष और व्यक्ति विशेष के खिलाफ मर्यादा विहीन पोस्ट और कमेंट ने इस बड़े माध्यम को आचरण विहीन जुबानी जंग का मैदान सरीखा बना दिया है। देश के बड़े सियासी नेताओं को सहित हर मुद्दों पर बेहूदा पोस्ट कर केे उसका मखौल उड़ाना निंदनीय है। असहमती का अधिकार लोकतंत्र में सभी को है मगर संवैधानिक दायरे में रह कर। हमें किस मुद्दे पर कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए इसका ख्याल रखना बेहद जरूरी है। इसके इस्तेमाल करते समय सभी को काफी जागरूक और संवेदनशील रहने की जरूरत है। आज कल सोशल मीडिया पर राजनेताओं का मखौल उड़ाना आम बात बन गया है। इसके लिए राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता समेत समर्थक और विरोधी जिम्मेदार हैं। सियायी दल के नुमाइन्दों सतिह प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री व मंत्रियों के खिलाफ मर्यादा विहीन पोस्ट और प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों पर आसानी से देखने को मिल जाती हैं, जो कि हमारे अभिव्यक्ति के आजादी का बेजां इस्तेमाल के सिवा कुछ नहीं। इस चलन से सभी को बचने की जरूरत है। असहमती की दशा में हमें सहनशील हो कर अपने विचार रखने की जरूरत है। विरोध और समर्थन का तरीका सभ्य होना चाहिए।
धार्मिक विषयों पर कुछ लिखने या अपनी राय रखते समय यह ध्यान रखने की जरूरत है कि हमारे पोस्ट से समाज का कोई तबका आहत न हो। धर्म आचरण का विषय है समाज का हर व्यक्ति इसके लिए जिम्मेदार है कि वह खुद के धर्म का सम्मान जरूर करे मगर दूसरे धर्म के खिलाफ गलत टिप्पणी ना करे। ऐसी दशा में विरोधाभास कम देखने को मिलेगी। हमें यह सोचना होगा कि सोशल मीडिया एक बन्द खिड़की नहीं है वरन खुला आसमान सरीखा है। हमारी बात चन्द लोगों तक जरूर पहुंचती है मगर उसका दायरा नदी के उस बहाव की तरह है जिसे चाह कर नहीं रोका जा सकता। ऐसी दशा में कभी-कभी कुछ गलत और समाज के किसी खास तबके को आहत करने वाले पोस्ट वायरल हो जाते हैं, जो दो समुदायों, दो समाजों के बीच नफरत फैलाने के लिए काफी होते हैं। ऐसे पोस्टों पर शाब्दिक हिंसा जोरों से होने लगती है। जो कि बहुत ही खतरनाक दौर तक पहुंच जाती है। गाय और दादरी का मुद्दा इसके चन्द उदाहरण भर हैं।
सोशल मीडिया ने सूचना और संचार के क्षेत्र में क्रान्ति ला दिया है। इस माध्यम ने न केवल लोगों को एक-दूसरे को जोड़ने का काम किया है बल्कि स्वतंत्र प्रतिक्रिया देने का सशक्त प्लेटफार्म मुहैया कराया है। हमें अपनी बातों को समाज के बीच बिना सेंसर के रखने का जरिया है सोशल मीडिया, इसका यह मतलब कत्तई नहीं की हम कुछ भी लिख और बोल दें। संवाद के इस सशक्त माध्यम के जरिये हमें शाब्दिक हिंसा फैलाने से बचने की सख्त जरूरत तो है ही साथ दूसरों की मर्यादा और निजता का भी ध्यान रखना हम सबकी जिम्मेदारी है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी के खिलाफ आरोप-आक्षेप लगा कर हम इस बड़े माध्यम का अपमान न कर खुद के संस्कारों को प्रदर्शित करते हैं। इस माध्यम का उपयोग करते समय हमें यह सोचने की जरूरत है कि अपनी सभ्यता और मर्यादा का ध्यान रख कर समाजहित की बातों और बेहतर सूचनाओं को फैलाएं। राष्ट्रीय एकता और विकास के मुद्दों पर सार्थक बहस से इस माध्यम का बेहतर सदुपयोग किया जा सकता है। सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों पर युवा वर्ग की संख्या ज्यादा है, ऐसे में युवाओं को चाहिए कि आतंकवाद और कट्टरता के खिलाफ व्यापक बहस कर लोगों जाकरूक करने का प्रयास करें। समाज में सद्भाव और समरस्ता को बढ़ावा देने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। सोशल मीडिया को गाली-गलौज और आरोप-आपेक्ष का माध्यम बनाने वालों को सोचने की जरूर है कि डिजिटल इण्डिया मुहीम को स्वच्छ भारत अभियान के तहत लाकर इस बड़े माध्यम का सार्थक इस्तेमाल किया जा सके और समाज को बेहतर संदेश दिया जाये।

Wednesday, August 8, 2018

पुस्तक समीक्षा

स्त्री चेतना को जगाती कविताएं

पुस्तक- सुहैल मेरे दोस्त (काव्य संग्रह), कवियत्री- उषा राय, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर, राजस्थान, मूल्य- ₹ 120/

सुहैल मेरे दोस्त उषा राय की पहली कविता संग्रह है। कुल चौव्वालीस (44) कविताओं का यह संग्रह स्त्री जीवन के विभिन्न रूपों को दर्शाती है, जिसमें करुणा, आक्रोश, ममता, दया और यथार्थ शामिल है। इसके साथ इस संग्रह में सामाजिक, पारिवारिक विद्रूपताओं के सरोकार भी परिलक्षित हैं। आजकल कविताएं लिखना बहुत आसान समझा जाता है किंतु कविता इतनी मुश्किल है कि वह अनुभूतियों की छाप से आगे न निकले तो शब्दों के जोड़-तोड़ में बदल जाती है। मगर उषा राय ने इस संग्रह में काव्य पाठकों के लिए बेहतर रचनाएं पेश किया है। उषा राय ने जीवन में जो सहा, भोगा, देखा और जिन हालातों से उनका सामना हुआ, उन्हीं वास्तविक अनुभवों को कविता का रूप दिया है। इनकी कविताओं से गुजरने पर महसूस होता है कि अब स्त्रियां केवल विलाप नहीं करती हैं बल्कि चेतना व जागृति की वाहक हैं। संग्रह की हर कविता अपनी मकसद को पार उतरती है। स्त्री विमर्श के हर मेयार पर खरी हैं कविताएं।
इस काव्य संग्रह में स्त्री जीवन का मर्म, संघर्ष और कठिनाइयों तो परिलक्षित है ही साथ में बेहतर दुनियां की चाह यहां अनूठेपन के साथ मौजूद है। कवियत्री ने अपनी रचनाओं के मध्य से स्त्री विरोधी लोगों और फासीवादी व्यवस्था पर प्रहार किया है। सामाजिक विद्रूपताओं से घिरी व छलि स्त्री की पीड़ा व संवेदना को बखूबी कलमबद्ध किया है। संग्रह की पहली कविता ईंट भर जमीन में उषा राय ने स्त्री की उस विडंबना व संकोच को दर्शाया है, जब स्त्री को अंजान हालात और माहौल को आत्मसात करना पड़ता है-

कीचड़ में
ईंट रखती लड़की
रास्ता बनाती है
उस जगह में भी
जहाँ से गुजरते हुए
डर लगता है।

अतीत के स्त्री चरित्र से कवियत्री ने वर्तमान के स्त्रियों को प्रेरणा देते हुए शबरी और अहिल्या शीर्षक से कविता लिखी है। कविताओं के जरिये ये स्त्रियों को स्वावलंबी और मजबूत बनाने का प्रयास है। शबरी के संघर्ष भरे जीवन को उकेरते हुए लिखा है-

जंगल में
जहां खाने को नहीं
पहनने को नहीं
कैसे संभाला
मासिक धर्म और
अपने औरतपने को
शबरी मेरी अग्रजा
तुमने दी है
मुझे बुरे वक्त में
खड़े होने की
हिम्मत

अहिल्या शीर्षक से कविता में उषा राय लिखती हैं-

जब घटेगी कोई घटना
बेहद मामूली सी और
दुनिया हो जाएगी पुरुषमय
डरती हूँ प्रणाम की मुद्रा में
यही तो बात है
सच को तुम खोजो और गढ़ो
अपने लिए अपनी जैसी अहिल्या

सुहैल मेरे दोस्त शीर्षक कविता में उषा राय ने सामाजिक बंधनों में कैद प्रेम करने वाली लड़की की पीड़ा, संवेदना और अकुलाहट को दर्ज करते हुए लिखा है-

अंधेरा हो रहा है
मैं तुम्हे घर छोड़ देता हूँ
तुम्हारे कहने से पहले ही कह बैठी
नहीं... नहीं बहुत सफाई देनी पड़ेगी
फिर मैंने कहा तुम जाओ सुहैल
मैं चली जाऊँगी...

हर बेटी के लिए माँ संसार के समान होती है। समाज और परिवेश के भले-बुरे से बेटी को माँ ही परिचित करती है। माँ का कंधा शीर्षक कविता के माध्यम से कवियत्री ने संदेश दिया है, अपनी बेचैनी और भावना को परोसा है-

बेटियों के लिए
कांच भरी दुनिया को
देखने का मुंडेर है
माँ का कंधा
बेटियों के लिए
दुनियादारी में
उतरने की सीढ़ी है

काव्य मन सदैव ही समाजी हालात पर नजर लगाए रहती है। हमारे आसपास जो घटता है, उससे हम हमेशा प्रभावित होते हैं। मुजफ्फरनगर दंगा पर कवियत्री का व्याकुल मन कैसे मौन रहता-

उसकी आँखों में हत्यारे की सी
क्रूरता आ रही थी, जरूर कहीं न कहीं
मौत पंजे फैलाएगी, रोको उसे
जो मौत का पैगाम लेकर जा रहा है
इतिहास की कोई तारीख
आंख मूंद लेती है
कि अभी मौत
काली चादर तान देगी
हवा रास्ता भूल जाएगी
हिंसक आंखें चमक उठेंगी
झपट्टा मारेगी शिकार पर
बदहवास भागती औरतें
कुचले जाते बच्चे, रोते बूढ़े

शहरों, कस्बों में मासूम बच्चियों से होते बलात्कार और अत्याचार पर उषा राय ने बड़ी बेबाकी से कलम चलाया है। आदमखोर शीर्षक कविता में लिखती हैं-

लार सने दांत चमकी आंखें
मारेगा झपट्टा शिकार पर
रक्त मांस का कतरा-कतरा
खाएगा, खाता है आदमखोर

मानव के वजूद के साथ ही प्रेम की शुरुआत है। इंसान चाहे जैसा हो उसके साथ प्रेम ईश्वरीय सत्ता से मिली हुई है। जिंदगी की रुमानियत का एहसास ही प्रेम है। वक़्त और हालात भले बदल जाते हैं मगर प्रेम की चादर सदैव ही इंसान के जेहन को ढके रहता है। उषा राय ने प्रेम शीषर्क से कविता में इंसानी जज्बात को परखा है-

ऐसे ही कोई
खास होता है समय
जब प्रेम उतरता है
सातवें आसमान से
प्रेम अपने आप को
दुहराता नहीं
हाँ चिन्ह अवश्य
छोड़ जाता है

इस काव्य संग्रह में उषा राय ने बहुत ही ईमानदारी और साफगोई से स्त्री वेदना, संघर्ष और प्रेम को उकेरा है। इनकी कविताओं के कथ्य और विम्ब जीवन को आशा और सुख प्रदान करती हैं। काव्य साधना भले ही निर्धारित मानदण्ड पूरे न करती हों लेकिन उनमें प्रयुक्त प्रवाहमय शब्द अपनी बात कह ही जाते हैं, जो हृदय तक पहुंचते-पहुंचते रचना का रस पाठक को स्वाद देती है। निःसंदेह यह काव्य संग्रह पठनीय है।

Tuesday, March 20, 2018

विश्व गौरैया दिवस

घर आंगन की चिड़िया गौरैया की हिफाजत जरूरी
अभी कुछ साल पहले ही अम्मी जब सुबह के वक्त सूप में चावल को पछोरती और बनाती थीं तब छोटी-छोटी चिड़िया झुण्ड में चावल के छोटे टुकड़ों जिसे गांव में खुद्दी के नाम से जाना जाता है उसे खाने के लिए नुमाया हो जाती थीं। फुदक-फुदक कर हल्के कोलाहल के साथ दालान और रोशनदान के साथ पूरे मकान में मानो उनका कब्जा सा हो जाता। वो छोटी चिड़िया थीं गौरैया। जो हमारे और आप के घरों की मेहमान हुआ करती। बच्चों के लिए उड़ने वाली सहेली और घर के लिए मिठास भरी चहक जिसके बरकत से घर-आंगन गुलजार रहता। ऐसा नहीं है कि अब गौरैया नहीं आती मगर उनकी तायदाद दिन ब दिन कम होती जा रही हैं। गौरैया आज संकटग्रस्त पक्षि की श्रेणी में आ गयी है, जो कि पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ होती जा रही है। चन्द साल पहले तक गौरेया के झुंड को आसानी से घरों, गांव, खेत-खलिहान सहित सार्वजनिक स्थलों पर देखे जा सकते थे। लेकिन खुद को परिस्थितियों में ढ़ाल लेने वाली यह चिड़िया अब भारत ही नहीं बल्कि यूरोप के कई बड़े हिस्सों में भी काफी कम रह गयी है। इटली, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस और चेक गणराज्य जैसे मुल्कों में इनकी संख्या जहां तेजी से गिर रही है तो वहीं नीदरलैंड में तो इन्हें ‘दुर्लभ प्रजाति’ के वर्ग में रखा गया है। इनकी संख्या में निरंतर आ रही कमी को देखते हुए इनके संरक्षण के लिए विश्व गौरैया दिवस पहली बार सन् 2010 में मनाया गया। तब से यह दिवस प्रत्येक वर्ष 20 मार्च को पूरी दुनिया में गौरैया पक्षी के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जाता है।
अमूमन हर साल गर्मी की आमद के साथ ही ये नन्ही चिड़ियां अपने लिए घरौंदे बनाना शुरू कर देती हैं। वक्त के साथ विकास के पैमानों में आये बदलाव ने मानव सभ्यता की गोद में पलने वाली इस नन्ही चिड़ियों से इनके आशियाना को छीन लिया है। पहले कच्चे और घास-फूस के मकानों में गौरैया बड़ी आसानी से अपने घोसलें बना लेतीं मगर आधुनिक कांक्रीट के मकानों में इनको घोसलें बनाने की जगह नही मिल पा रही हैं। शहरीकरण ने गावों की दहलीज को अपने गिरफ्त में ले लिया है जिस वजह से दिन ब दिन गांवों की हरियाली और खुली फिजां संकुचित होती जा रही है, यही वजह है कि इनके प्राकृतिक निवास और भोजन के श्रोत भी खत्म होते जा रहे हैं। बाज, चील, कौवे और परभक्षी बिल्लियां आदि भी गौरैया का काफी नुक्सान पहुंचा रहे हैं। बची खुची कसर पंक्षियों के शिकारी पूरा कर दे रहे हैं। कनेर, बबूल, नीबू, चंदन, बांस, मेंहदी, अमरूद के वृक्षों पर ये अपना घोंसला बनाती हैं। छोटे पेड़ व झाड़ियों को काटे जाने से भी इनके प्रजनन पर संकट मण्डराया है। इसके अलावा मोबाइल के टावर भी इनके वजूद को मिटाने में मदद्गार सबित हो रहे हैं। मोबाइल टावरों से निकलने वाली इलेक्ट्रो मैगनेटिक किरणें गौरैया की प्रजनन क्षमता को कम करती हैं। जिस वजह से दिन ब दिन गौरैया विलुप्त होती जा रही है। इनका कम होना हमारे पर्यावरण के लिए खराब संकेत है। गौरैया सिर्फ एक चिड़िया नही बल्कि हमारी मानव सभ्यता का एक अंग है और हमारे गाँव व शहरों में स्वस्थ वातावरण की सूचक भी है। गौरैया किसानों के लिए काफी मदद्गार मानी जाती है, ये अपने बच्चों को जो अल्फा एवं कटवर्म खिलाती हैं, वो फसलों को बहुत नुक्सान पहुंचाते हैं।
गौरेया पासेराडेई परिवार की सदस्य हैं। इनकी लम्बाई 14 से 16 सेंटीमीटर होती है। ये अधिकतर झुंड में ही रहती हैं तथा भोजन तलाशने के लिए गौरेया का झुंड अधिकतर दो मील की दूरी तय करते हैं। आवश्यकता है कि हम इस नन्ही चिड़िया को घर बनाने के लिए थोड़ी सी जगह दे और इन्हें माकूल सुरक्षा दें तथा यह अपने बच्चों को आसानी से पाल सके इसलिए विषहीन हरियाली उपलब्ध कराने का प्रयास करें। घरों में नेस्ट बाक्स लगायें। गर्मी के दिनों में घरों, आफिस और सर्वाजनिक स्थलों पर बर्तन में पानी व दाना रखने का प्रबंध करें। हमें इन नन्हीं चिड़ियों के लिए वातावरण को इनके अनुकूल बनाने में मदद करनी होगी। ताकि इनकी मासूम चहक हमारे आस पास बरकरार रह सके। आजकल खेतों से लेकर घर के गमलों के पेड़-पौधों में भी रासायनिक पदार्थों का उपयोग हो रहा है जिससे ना तो पौधों को कीड़े लगते है और ना ही इस पक्षी को समुचित भोजन मिल पा रहा है। इसलिए गौरैया समेत दुनिया भर के बहुत से पक्षी हमसे रूठ चुके हैं और शायद वो लगभग विलुप्त हो चुके हैं या फिर किसी कोने में अपनी अन्तिम सांसे गिन रहे होंगे। बदलाव की धारा को हम एकाएक नही रोक सकते हैं मगर इस बदलाव की रफ्तार में भी हम उन्हें भी अपने साथ लेकर जरूर चलने की कोशिश कर सकते हैं जो सदियों से हमारे साथ हैं और मानव सभ्यता उनसे फायदा पाती आयी है।
मानव जब भी अपनी राह से भटका है तब प्रकृति ने उसे किसी न किसी रूप में सन्देश देने का काम किया है मगर वह अपनी बेजा ख्वाहिशों की कोलाहल में उसे नजरअंदाज करता आया है। कुदरत के संदेश को नजरअंदाज करने का भयंकर परिणाम भी उसे झेलना पड़ा है। अकाल, भू-स्खलन बेमौसम बारिश, महामारी इसके उदाहरण हैं। संकटग्रस्त गौरैया को बचाना वक्त की पुकार और दरकार है। बच्चों की उड़ने वाली सहेली, घर-आंगन की चहक और फुदक की हिफाजत के लिए हमें गौरैया के संरक्षण की खातिर हर जतन करने की जरूरत है।

Sunday, March 18, 2018

आज के दिन

स्वागत करिये भारतीय नव वर्ष का


इंसान की जिन्दगी में आने वाला हर नया साल उसके लिए बहुत ही कीमती होता है। बीतते वक्त के साथ बदलता कैलेण्डर हमारे लिए महज तारीख का बदलन नहीं है बल्कि हमारे भूत और भविष्य की दिशा निर्धारण का पैमाना होता है। साल की शुरूवात इंसान की जिन्दगी में उमंग और उल्लास के साथ खुशी लेकर आनी चाहिए न कि हाडकपाती ठण्ड! हम भारतवासी ईसवी सन् के प्रथम दिन यानि एक जनवरी को नये वर्ष के रूप में बड़े धूम-धाम से मनाते हैं। जिसका न तो कोई खगोलीय प्रतिष्ठा है, न प्राकृतिक अवस्था और न ही ऐतिहासिक पृष्ठभूमी। जनवरी के सर्द मौसम में हाड कपाती ठंड व रक्त संचार जमा कर मनुष्य की गतिशीलता को रोक देता है। पेड़ पौधों का विकास रूक जाता है तथा उनके पत्ते पीले पड़ जाते हैं। इस मौसम में सूरज का प्रकाश भी मध्म पड़ने लगता है। कोहरे के धुंध में सब कुछ धुंधला सा दिखता है। जल के श्रोत बर्फ का चादर ओढ़ लेते हैं। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने इसी सब को देखकर नवम्बर 1952 में परमाणु वैज्ञानिक मेघनाथ साहा की अध्यक्षता में पंचांग सुधार समिति का गठन किया था। इस समिति में एस. सी. बनर्जी, गोरख प्रसाद, वकील के एल दफतरी, पत्रकार जे. एस. करंडिकर व गणितज्ञय आर. वी. वैद्य थें। समिति ने सन् 1955 में सर्व सम्मती से विक्रमी संवत पंचांग को स्वीकार करने की सिफारिश की। मगर पंडित नेहरू ने ग्रेगेरियन कैलेंडर को ही सरकारी कामकाज के लिए उयुक्त मानकर 22 मार्च 1957 को ग्रेगेरियन कैलेंडर को राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में स्वीकार किया। 
भारतीय नव वर्ष मनाने के लिए सबसे उपयुक्त विक्रम संवती का प्रथम दिन है क्योंकि प्रकृति इस समय शीतलता एवं ग्रीष्म की आतपता का मध्य बिन्दु होता है। जलवायु समशीतोष्ण रहती है। बसंत के आगमन के साथ ही पतझड़ की कटु स्मृति को भुलाकर नूतन किसलय एवं पुष्पों के युक्त पादप वृन्द इस समय प्रकृति का अद्भुत श्रृंगार करते दिखते हैं। पशु-पक्षि, कीट-पतंग, स्थावर-जंगम सभी प्राणी नई आशा के साथ उत्साहपूर्वक अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त दिखाई पड़ते हैं। चारों तरफ सब कुछ नया-नया दिखयी पड़ता है। मनुष्य की प्रवृत्ती उस आनन्द के साथ जुड़ी हुई है जो बारिश की प्रथम फुहार के स्पर्श पर, प्रथम पल्लव के जन्म पर, नव प्रभात के स्वागत में पक्षी के प्रथम गान या फिर नवजात शिशु का संसार में प्रथम आगमन के किलकारी से होता है। 
ऐसा माना जाता है कि सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की याद में इसी दिन राज्य स्थापित कर विक्रमी संवत की शुरूवात की। मर्यादा पुरूषोततम राम के जन्मदिन रामनवमी से नौ दिन पहले मनने वाले उत्सव भक्ति व शक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र का प्रथम दिन तथा लंका विजयोपरान्त आयोध्या लौटे राम का राज्याभिषेक इसी दिन किया गया। यही नहीं शालिवाहन संवत्सर का प्रारम्भ दिवस विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हुणों को परास्त कर दक्षिण भारत में राज्य स्थापित करने हेतु इसी दिन का चुनाव किया। उत्तर भारत में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, आन्ध्र प्रदेश में उगादी, महाराष्ट में गुड़ी पड़वा, सिंधु प्रांत में चेती चांद के रूप में नव वर्ष बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इसी दिन को दयानंद सरस्वती जी ने आर्य समाज की स्थापना दिवस के रूप में चुना। भारतीय परम्परा व शास्त्र के अनुसार विक्रम संवत का पहला दिन ही भारतीय नव वर्ष के रूप में मनाया जाना उचित व प्रसंगिक है। आइये दिल खोलकर विजय मिश्र बुद्धिहीन की काव्य रचना के साथ भारतीय नव वर्ष का स्वागत करें...
  
  स्वागत तेरा नव विहान
  खेले होठों पर हंसी कली 
  है विहंस रहा सारा वितान
  स्वागत तेरा नव विहान।

 पत्ते पत्ते खुशी मनाए    
 मंद पवन है अंग लगाए
 पलक पाँवड़े बिछा सभी
 हैं विहंग कर रहे मधुर गान
 स्वागत तेरा है नव विहान।

Friday, March 16, 2018

व्यंग्य

दल बदलन के कारने नेता धरा शरीर

एम. अफसर खान सागर

सियासत क्या बला है और इसके दाव पेंच क्या हैं इसका सतही इल्म न मुझे आज तक हुआ और न मैने कभी जानने की कोशिश की। अगर यूं समझें कि सियासी के हल्के में फिसड्डी हूं तो गलत न होगा। मगर सियासत ऐसी बला है कि आप इससे लाख पीछा छुड़ाएं मगर छूटने वाला नहीं है। देश व प्रदेश की बात तो दूर आजकल गली-मुहल्ले में नेताओं की लाइन लगी है। नेता ऐसे कि आज फलां की जिंदाबाद तो तो कल फलां की। या यूं कह लें कि सुबह और शाम में सियासी दल और झण्डा बदलने में माहिर हैं। इनकी महारत ऐसा कि गिरगिट भी मात खा जावे। इनके कारनामों की देन है कि आज हिन्दुस्तानी सियासत का पूरा हुलिया ही बदल गया है। गुजरे जमाने के नेता अगर ये सब देख लें तो अपना माथा ही ठोक लें। राजनीति बदली और बदलने की राजनीति का प्रादुर्भाव हुआ। दल बदले और दल बदलुओं का चरित्र भी बदल गया।

ठीक इसी फारमेट के एक नेता मुंशी दरबारी लाल मेरे पड़ोस में रहते हैं। अखबारी आदमी हूं सो हर रोज उनसे सामना होना लाजमी है। सुबह किसी दल का प्रेस नोट लेकर आते हैं तो शाम होते दूसरे दल का। बेचारे झण्डा और टोपी बदलते-बदलते इतने बदल गयें कि लोग उन्हे न तो किसी दल और न ही पैदल मानते हैं मगर अपने इस चरित्र पर काफी गौरवान्वित महसूस करते हैं। एक शाम मुंशी दरबारी लाल प्रेस नोट लेकर आयें और कहने लगें, भाई साहब! राजनीति का जो हालिया दौर चल रहा है उसमें मुझ जैसों के लिए बहुत संभावनायें दिखती हैं। दौर ऐसा कि कुछ कहा नहीं जा सकता कौन किस दल में है, रहेगा या जाएगा। ठीक आपके मीडिया जगत की तरह। आज हैं प्रधान सम्पादक तो कल मामूली पत्रकार या पैरोकार। दल तो ऐसे बदला जा रहा है जैसे लोग कपड़े बदलते हैं। मैं तो दलबदलुओं का काफी सम्मान करता हूं। सलाम करता हूं उनके मौकापरस्ती को। शीश नवाता हूं उनके तोल-मोल या खरीद-व-फरोख्त के आगे। आस्था रखता हूं उनके दलबदलू चरित्र में। ये भी क्या कि एक दल के दलदल में दल का दोहा जपते-जपते स्वर्ग सीधार जाए, न पद न प्रतिष्ठा और न लाल-पीली बत्ती की आस। सिर्फ दल की मर्यादा का ख्याल रखो, आला कमान और हाई कमान के आदेशों और आज्ञा का पालन करो। सिद्धानतों की पोटली ढ़ोते-ढ़ोते उम्र के साथ नेतागीरी ही एक्सपायर हो जाये। ऐसी बेवकूफी भरा काम तो सिर्फ और सिर्फ गधा ही कर सका है न कि नेता।

आजकल राजनीति तो मौकापरस्ती का दूसरा नाम है। खुद के लाभ की खातिर वसूलों-सिद्धांतों से समझौता कर लेने में ही भलाई है, कहावत है जैसा देश वैसा भेष। देखिए ना कल्याण सिंह जी को खालिस राम भक्त थें पहले भी आज भी हैं। क्या हुआ जो बीच में समाजवाद का टेस्ट ले लिया। लाल व केसरिया टोपी में अन्तर ही क्या है? मैं तो छोटे चैधरी से काफी हद तक सहमत हूं, एन.डी.ए. और यू.पी.ए. में फर्क क्या? सिर्फ मंत्रीपद से सरोकार। नरेश अग्रवाल जी का चरित्र तो इस मामले में एकदम दुरूस्त है हाथी व साइकिल के बीच हमेशा गैप बना के चलते हैं। सरकार बदले ही सवारी बल लेते हैं। केसरिया फिजा में लाल व नीला रंग के धुंधला पड़ने की वजह से अग्रवाल  जी तो चल दिये कमल खिलाने। बात दीगर है कि सिर मुड़ाते ओले पड़े! भई! हम किसी के साथ आखिर रहें क्यों? जब हमारे लोगों को लाभ व सम्मान ही न मिल पावे। दलबदलुओं का अपना कुछ वसूल भी होता है जिसपर वे पूरी तरह अमल करते हैं। परिवर्तन प्रकृति का शाष्वत नियम है मगर उसके अपने तरीके होते हैं। दल बदलने के बाद नेता शाम की शुरमई रोशनी के साथ किसी दूसरे दल के सिद्धांतों के तालाब में कूद कर फ्रेश हो जाता है। जहां  पुरान पार्टी के सिद्धांतों के मैल को नई पार्टी के वसूलों के क्लीनिंग सोप से रगड़-रगड़ के धो डालता है। गाडी से पुराने दल के झण्डे को उतार कर नये दल के झण्डे से चमका देता है। इतना ही नहीं नये दल के दफ्तर में उसके आमद का तमाशा होता है और उसके चरित्र के कसीदे पढ़े जाते हैं। मोटी माला पहनाकर नये अवतार में पेष किया जाता है। वह भी पर्टी के सिद्धांतों के लिए जीने-मरने की कसमें खाता है। ...फिर क्या दल में पद के ताज से उसका मसतक उंचा किया जाता है, इस दौरान उसको काफी मान व सम्मान का बोध कराया जाता है। ऐसे में पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं से उसको फजीलत खुद-ब-खुद हासिल हो जाती है। अगर दल सत्ता में आ जावे तो सिंहासन भी मिलना वजिब है। आप ही सोचिए जब दल बदलने पर इतना ईनाम व एकराम मिले तो नेता क्यों न दलबदलू होवे।

दलबदलूओ से आधुनिक राजनीति को आक्सीजन मिल रहा है। अगर ये खत्म हो गये तो कितनों के राजनीति संकट आ जायेगा। इनके ना रहने से छोटे सियासी दलों के साथ बड़े दलों को भी सरकार बनाने में दिक्कत व मशक्कत का सामना करना पड़ेगा। बेहद पवित्र व मुफीद है दलबदलू चरित्र। मैं तो साफ कहता हूं जनबा! दल बदलन के कारने नेता धरा शरीर।

email- mafsarpathan@gmail.com