कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ मुल्क में सख्त कानून होने के बावजूद मासूम बच्चियों को पैदा होने से पहले ही दफ्न करने के मामले बदस्तूर जारी हैं। बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान भी चल रहे हैं मगर उनका व्यापक असर आना बाकी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कन्या भ्रूण हत्या को मुल्क की मानसिक बीमारी तक बता दिया फिर भी लोग नहीं चेत रहे। धर्म चाहे कोई हो स्त्री को मां, बहन और बीबी का दर्जा हासिल है बावजूद इसके सामाजिक रूढि़वादीता ने हमें न जाने कितना गिरा दिया है। भारतीय संस्कृति में स्त्रीयों की पूजा की जाती है फिर भी पुत्र प्राप्ति की चाह में आज भी कई कन्याएं जन्म लेने से पहले ही दफ्न कर दी जा रही हैं। बालिकाओं पर होने वाले जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने की जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ सरकारी तंत्र के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता है, बल्कि समाज के प्रत्येक नागरिक को इसके लिए आगे आना होगा। महिला सशक्तिकरण का परचम बुलन्द करने से पहले बालिकाओं को बचाने की जरूरत है, क्योंकि जब बालिकाओं ही वजूद खतरे में रहेगा तो ऐसी दशा में महिला सशक्तिकरण की बात बेमानी होगी। महिलाओं पर होने वाले अपराधों की पहली शुरुआत कन्या भ्रूण हत्या से होती है। चिंताजनक और विचारणीय तथ्य है कि हमारे मुल्क के संवृद्ध राज्यों पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है। कन्या भ्रूण हत्या की प्रवृत्ती गैरकानूनी, अमानवीय और घृणित है। इसके खिलाफ समाज को पुरजोर आवाज बुलन्द करना होगा। सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद समाज में कन्या-भ्रूण हत्या की घटनाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। अगर आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो सन् 1981 में 0.6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात 1000-962 था जो 1991 में घटकर 1000-945 और 2001 में यह आंकड़ा 1000-927 हो गया। सन् 2016-17 तक इसे इसे बढ़ा कर 950 करने का लक्ष्य रखा गया है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वर्ष 2001 से 2005 के अंतराल में करीब 6,82,000 कन्या भ्रूण हत्याएं हुई हैं। एक आंकड़ा के मुताबिक हमारे देश में प्रतिवर्ष करीब 40 लाख महिलाएं गर्भपात करवाती हैं। हालांकि कन्या भ्रूण हत्या के लिए गर्भपात तो प्रमुख वजह है ही इसके अलावा कन्या मृत्यु दर का अधिक होना भी प्रमुख वजह है। जिससे साफ जाहिर होता है कि बच्चों की अपेक्षा बच्चियों की देख-भाल ठीक तरीके से नही होने से कन्या मृत्यु दर ज्यादा है।
कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए मुल्क में कानून की कमी नहीं है। इसको रोकने के लिए कई कानून व एक्ट बने हैं। सन् 1995 में बने “जन्म पूर्व नैदानिक अधिनियम, 1995 (प्री नेटन डायग्नोस्टिक एक्ट, 1995)” के मुताबिक बच्चे के जन्म से पूर्व उसके लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है। गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 के अन्र्तगत गर्भाधारण पूर्व या बाद लिंग चयन और जन्म से पहले ‘कन्या भ्रूण हत्या’ के लिए लिंग परीक्षण करने को कानूनी जुर्म ठहराया गया है। इसके साथ ही गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम 1971 के अनुसार केवल विशेष परिस्थितियों में ही गर्भवती स्त्री अपना गर्भपात करवा सकती है। जब गर्भ की वजह से महिला की जान को खतरा हो या महिला के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को खतरा हो या गर्भ बलात्कार के कारण ठहरा हो या बच्चा गंभीर रूप से विकलांग या अपाहिज पैदा हो सकता हो। आईपीसी में भी इस सम्बंध मंे प्रावधान मौजूद हैं। आईपीसी की धारा 313 में स्त्री की सहमति के बिना गर्भपात करवाने वाले को आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है। इन सबके बावजूद कन्या भ्रूण हत्या के मामले दिन-ब-दिन बढ़े ही जा रहे हैं। पुत्र रत्न की प्राप्ति के नशे में चूर पिता और कन्या भ्रुण हत्या के लिए तैयार महिलाएं भी इसके लिए कम दोषी नहीं हैं। कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए कानून कमजोर नहीं है और सजा का प्रावधान भी पर्यपात है। मगर डाक्टरों की एक जमात जो लालच में सोनोग्राफी के जरिए लिंग निर्धारण करके जन्म से पहले ही कन्याओं के कत्ल में बढ़ी भूमिका अदा कर रही है। हालांकि इसके लिए सख्त कानून हैं फिर भी कहीं न कहीं कानून के अनुपालन एवं सम्बन्धित व्यक्तियों में इच्छा शक्ति की कमी की वजह से ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही हो पाने में बाधा उत्पन्न होती जतर आ रही है।
कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा देने वाले कारणों पर चर्चा किए बिना इसके निदान पर पहुंचना बेमानी होगा। सभ्य और शिक्षित समाज में दहेज लोभी भेडि़ये कन्या भ्रूण हत्या को फैलाने में काफी हद तक मददगार साबित हुए हैं। सुरसा की तरह मुहं बाये महंगाई और गरीबी में इंसान का अपने परिवार का पेट पालना मुश्किल साबित हो रहा है एसे में उसे दहेज की चिंता ने कन्याओं से मोहभंग कर रखा है। इस भेद-भाव के पीछे सांस्कृतिक मान्यताओं एवं सामाजिक नियमों की भूमिका से इंकार नही किया जा सकता है। पिता के बाद पुत्र पर ही वंश आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी होती है, माता-पिता को मुखाग्नि देने की परम्परा आदि। कन्या भ्रूण हत्या में पिता और परिवार की भागीदारी से ज्यादा चिंता का विषय है इसमें मां की सहमति। एक मां जो खुद स्त्री होती है, वह कैसे अपने ही अस्तितव को नष्ट कर सकती है और यह भी तब जब वह जानती हो कि वह बच्ची भी उसी का अंश है। कभी-कभी औरत ही औरत के ऊपर होने वाले अत्याचार की धुरि बनती है, इस कथन को ऐसे परिदृश्य में गलत नहीं साबित किया जा सकता है। स्त्रियों पर बढ़ते अत्याचार की खबरें सदैव ही सुर्खियां में रहती हैं, मगर जितनी स्त्रियाँ बलात्कार, दहेज और दूसरी मानसिक व शारीरिक अत्याचारों से सताई जाती हैं, उनसे कई सौ गुना ज्यादा तो जन्म लेने से पहले ही मार दी जाती हैं। आज जरूरत है कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ सामाजिक जागरूकता पैदाकर लोगों को लकड़ा और लड़की में पनपे फर्क को दूर करने की। इस बात को समझाने की सख्त आवश्यकता है कि लड़कीयां किसी क्षेत्र में लड़कों से कम नहीं हैं। राजनीति, व्यवसाय, नौकरी, शिक्षा, खेल, सिनेमा, कला सहित दूसरे क्षेत्रों में ये किसी से कम नहीं हैं। आज महिलायें उन सभी उपब्धियों को पाने में सक्षम हैं जो पुरूष हासिल कर सकते हैं। प्रतिभा देवी पाटिल, सोनिया गांधी, जयललिता, आनन्दी बेन, मायावती, सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, मैरीकाम, इन्दिरा नूई, चन्दा कोचर, सुनीता विलियम्स सहित अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। इन महिलाओं ने समाज को दिशा देने का काम किया है। ये चन्द उदाहरण हैं जो लड़की और लड़का के फर्क को मिटाती है। अगर हम समाज की छोटी ईकाइ परिवार से ही बच्चियों और महिलाओं को बराबरी का हक दे ंतो ये लड़कों और पुरूष से कहीं कम साबित नहीं होंगी। रूढि़वादी मानसिकता से उपर उठकर हमें बच्चा और बच्ची के फर्क को मिटाना होगा। ये समझना होगा कि 21वीं सदी में हम किस दिशा में जा रहे हैं? हां, धर्म और समाज की मान्यताओं को सुरक्षित रखते हुए इन्हे जीने की पूरी आजादी देनी होगी। अगर बच्चियों का वजूद यूं ही मिटता रहा तो हम बेहतर बीबी, बहन और मां कहां से लाएंगे? कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ सबसे पहले महिलाओं को आवाज बुलन्द करना होगा। इसके साथ समाज के नजरिए में व्यापक बदलाव लाने की जरूरत है वर्ना ऐसे ही पैदा होने से पहले बच्चियां दफ्न होती रहेंगी।
प्रकाशित- सम्पादकी हिन्दी दैनिक, खबर विजन, वाराणसी
दिनांक- 17 जनवरी 2016
कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए मुल्क में कानून की कमी नहीं है। इसको रोकने के लिए कई कानून व एक्ट बने हैं। सन् 1995 में बने “जन्म पूर्व नैदानिक अधिनियम, 1995 (प्री नेटन डायग्नोस्टिक एक्ट, 1995)” के मुताबिक बच्चे के जन्म से पूर्व उसके लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है। गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम, 1994 के अन्र्तगत गर्भाधारण पूर्व या बाद लिंग चयन और जन्म से पहले ‘कन्या भ्रूण हत्या’ के लिए लिंग परीक्षण करने को कानूनी जुर्म ठहराया गया है। इसके साथ ही गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम 1971 के अनुसार केवल विशेष परिस्थितियों में ही गर्भवती स्त्री अपना गर्भपात करवा सकती है। जब गर्भ की वजह से महिला की जान को खतरा हो या महिला के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को खतरा हो या गर्भ बलात्कार के कारण ठहरा हो या बच्चा गंभीर रूप से विकलांग या अपाहिज पैदा हो सकता हो। आईपीसी में भी इस सम्बंध मंे प्रावधान मौजूद हैं। आईपीसी की धारा 313 में स्त्री की सहमति के बिना गर्भपात करवाने वाले को आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है। इन सबके बावजूद कन्या भ्रूण हत्या के मामले दिन-ब-दिन बढ़े ही जा रहे हैं। पुत्र रत्न की प्राप्ति के नशे में चूर पिता और कन्या भ्रुण हत्या के लिए तैयार महिलाएं भी इसके लिए कम दोषी नहीं हैं। कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए कानून कमजोर नहीं है और सजा का प्रावधान भी पर्यपात है। मगर डाक्टरों की एक जमात जो लालच में सोनोग्राफी के जरिए लिंग निर्धारण करके जन्म से पहले ही कन्याओं के कत्ल में बढ़ी भूमिका अदा कर रही है। हालांकि इसके लिए सख्त कानून हैं फिर भी कहीं न कहीं कानून के अनुपालन एवं सम्बन्धित व्यक्तियों में इच्छा शक्ति की कमी की वजह से ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही हो पाने में बाधा उत्पन्न होती जतर आ रही है।
कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा देने वाले कारणों पर चर्चा किए बिना इसके निदान पर पहुंचना बेमानी होगा। सभ्य और शिक्षित समाज में दहेज लोभी भेडि़ये कन्या भ्रूण हत्या को फैलाने में काफी हद तक मददगार साबित हुए हैं। सुरसा की तरह मुहं बाये महंगाई और गरीबी में इंसान का अपने परिवार का पेट पालना मुश्किल साबित हो रहा है एसे में उसे दहेज की चिंता ने कन्याओं से मोहभंग कर रखा है। इस भेद-भाव के पीछे सांस्कृतिक मान्यताओं एवं सामाजिक नियमों की भूमिका से इंकार नही किया जा सकता है। पिता के बाद पुत्र पर ही वंश आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी होती है, माता-पिता को मुखाग्नि देने की परम्परा आदि। कन्या भ्रूण हत्या में पिता और परिवार की भागीदारी से ज्यादा चिंता का विषय है इसमें मां की सहमति। एक मां जो खुद स्त्री होती है, वह कैसे अपने ही अस्तितव को नष्ट कर सकती है और यह भी तब जब वह जानती हो कि वह बच्ची भी उसी का अंश है। कभी-कभी औरत ही औरत के ऊपर होने वाले अत्याचार की धुरि बनती है, इस कथन को ऐसे परिदृश्य में गलत नहीं साबित किया जा सकता है। स्त्रियों पर बढ़ते अत्याचार की खबरें सदैव ही सुर्खियां में रहती हैं, मगर जितनी स्त्रियाँ बलात्कार, दहेज और दूसरी मानसिक व शारीरिक अत्याचारों से सताई जाती हैं, उनसे कई सौ गुना ज्यादा तो जन्म लेने से पहले ही मार दी जाती हैं। आज जरूरत है कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ सामाजिक जागरूकता पैदाकर लोगों को लकड़ा और लड़की में पनपे फर्क को दूर करने की। इस बात को समझाने की सख्त आवश्यकता है कि लड़कीयां किसी क्षेत्र में लड़कों से कम नहीं हैं। राजनीति, व्यवसाय, नौकरी, शिक्षा, खेल, सिनेमा, कला सहित दूसरे क्षेत्रों में ये किसी से कम नहीं हैं। आज महिलायें उन सभी उपब्धियों को पाने में सक्षम हैं जो पुरूष हासिल कर सकते हैं। प्रतिभा देवी पाटिल, सोनिया गांधी, जयललिता, आनन्दी बेन, मायावती, सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, मैरीकाम, इन्दिरा नूई, चन्दा कोचर, सुनीता विलियम्स सहित अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। इन महिलाओं ने समाज को दिशा देने का काम किया है। ये चन्द उदाहरण हैं जो लड़की और लड़का के फर्क को मिटाती है। अगर हम समाज की छोटी ईकाइ परिवार से ही बच्चियों और महिलाओं को बराबरी का हक दे ंतो ये लड़कों और पुरूष से कहीं कम साबित नहीं होंगी। रूढि़वादी मानसिकता से उपर उठकर हमें बच्चा और बच्ची के फर्क को मिटाना होगा। ये समझना होगा कि 21वीं सदी में हम किस दिशा में जा रहे हैं? हां, धर्म और समाज की मान्यताओं को सुरक्षित रखते हुए इन्हे जीने की पूरी आजादी देनी होगी। अगर बच्चियों का वजूद यूं ही मिटता रहा तो हम बेहतर बीबी, बहन और मां कहां से लाएंगे? कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ सबसे पहले महिलाओं को आवाज बुलन्द करना होगा। इसके साथ समाज के नजरिए में व्यापक बदलाव लाने की जरूरत है वर्ना ऐसे ही पैदा होने से पहले बच्चियां दफ्न होती रहेंगी।
प्रकाशित- सम्पादकी हिन्दी दैनिक, खबर विजन, वाराणसी
दिनांक- 17 जनवरी 2016
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