Friday, March 16, 2018

व्यंग्य

दल बदलन के कारने नेता धरा शरीर

एम. अफसर खान सागर

सियासत क्या बला है और इसके दाव पेंच क्या हैं इसका सतही इल्म न मुझे आज तक हुआ और न मैने कभी जानने की कोशिश की। अगर यूं समझें कि सियासी के हल्के में फिसड्डी हूं तो गलत न होगा। मगर सियासत ऐसी बला है कि आप इससे लाख पीछा छुड़ाएं मगर छूटने वाला नहीं है। देश व प्रदेश की बात तो दूर आजकल गली-मुहल्ले में नेताओं की लाइन लगी है। नेता ऐसे कि आज फलां की जिंदाबाद तो तो कल फलां की। या यूं कह लें कि सुबह और शाम में सियासी दल और झण्डा बदलने में माहिर हैं। इनकी महारत ऐसा कि गिरगिट भी मात खा जावे। इनके कारनामों की देन है कि आज हिन्दुस्तानी सियासत का पूरा हुलिया ही बदल गया है। गुजरे जमाने के नेता अगर ये सब देख लें तो अपना माथा ही ठोक लें। राजनीति बदली और बदलने की राजनीति का प्रादुर्भाव हुआ। दल बदले और दल बदलुओं का चरित्र भी बदल गया।

ठीक इसी फारमेट के एक नेता मुंशी दरबारी लाल मेरे पड़ोस में रहते हैं। अखबारी आदमी हूं सो हर रोज उनसे सामना होना लाजमी है। सुबह किसी दल का प्रेस नोट लेकर आते हैं तो शाम होते दूसरे दल का। बेचारे झण्डा और टोपी बदलते-बदलते इतने बदल गयें कि लोग उन्हे न तो किसी दल और न ही पैदल मानते हैं मगर अपने इस चरित्र पर काफी गौरवान्वित महसूस करते हैं। एक शाम मुंशी दरबारी लाल प्रेस नोट लेकर आयें और कहने लगें, भाई साहब! राजनीति का जो हालिया दौर चल रहा है उसमें मुझ जैसों के लिए बहुत संभावनायें दिखती हैं। दौर ऐसा कि कुछ कहा नहीं जा सकता कौन किस दल में है, रहेगा या जाएगा। ठीक आपके मीडिया जगत की तरह। आज हैं प्रधान सम्पादक तो कल मामूली पत्रकार या पैरोकार। दल तो ऐसे बदला जा रहा है जैसे लोग कपड़े बदलते हैं। मैं तो दलबदलुओं का काफी सम्मान करता हूं। सलाम करता हूं उनके मौकापरस्ती को। शीश नवाता हूं उनके तोल-मोल या खरीद-व-फरोख्त के आगे। आस्था रखता हूं उनके दलबदलू चरित्र में। ये भी क्या कि एक दल के दलदल में दल का दोहा जपते-जपते स्वर्ग सीधार जाए, न पद न प्रतिष्ठा और न लाल-पीली बत्ती की आस। सिर्फ दल की मर्यादा का ख्याल रखो, आला कमान और हाई कमान के आदेशों और आज्ञा का पालन करो। सिद्धानतों की पोटली ढ़ोते-ढ़ोते उम्र के साथ नेतागीरी ही एक्सपायर हो जाये। ऐसी बेवकूफी भरा काम तो सिर्फ और सिर्फ गधा ही कर सका है न कि नेता।

आजकल राजनीति तो मौकापरस्ती का दूसरा नाम है। खुद के लाभ की खातिर वसूलों-सिद्धांतों से समझौता कर लेने में ही भलाई है, कहावत है जैसा देश वैसा भेष। देखिए ना कल्याण सिंह जी को खालिस राम भक्त थें पहले भी आज भी हैं। क्या हुआ जो बीच में समाजवाद का टेस्ट ले लिया। लाल व केसरिया टोपी में अन्तर ही क्या है? मैं तो छोटे चैधरी से काफी हद तक सहमत हूं, एन.डी.ए. और यू.पी.ए. में फर्क क्या? सिर्फ मंत्रीपद से सरोकार। नरेश अग्रवाल जी का चरित्र तो इस मामले में एकदम दुरूस्त है हाथी व साइकिल के बीच हमेशा गैप बना के चलते हैं। सरकार बदले ही सवारी बल लेते हैं। केसरिया फिजा में लाल व नीला रंग के धुंधला पड़ने की वजह से अग्रवाल  जी तो चल दिये कमल खिलाने। बात दीगर है कि सिर मुड़ाते ओले पड़े! भई! हम किसी के साथ आखिर रहें क्यों? जब हमारे लोगों को लाभ व सम्मान ही न मिल पावे। दलबदलुओं का अपना कुछ वसूल भी होता है जिसपर वे पूरी तरह अमल करते हैं। परिवर्तन प्रकृति का शाष्वत नियम है मगर उसके अपने तरीके होते हैं। दल बदलने के बाद नेता शाम की शुरमई रोशनी के साथ किसी दूसरे दल के सिद्धांतों के तालाब में कूद कर फ्रेश हो जाता है। जहां  पुरान पार्टी के सिद्धांतों के मैल को नई पार्टी के वसूलों के क्लीनिंग सोप से रगड़-रगड़ के धो डालता है। गाडी से पुराने दल के झण्डे को उतार कर नये दल के झण्डे से चमका देता है। इतना ही नहीं नये दल के दफ्तर में उसके आमद का तमाशा होता है और उसके चरित्र के कसीदे पढ़े जाते हैं। मोटी माला पहनाकर नये अवतार में पेष किया जाता है। वह भी पर्टी के सिद्धांतों के लिए जीने-मरने की कसमें खाता है। ...फिर क्या दल में पद के ताज से उसका मसतक उंचा किया जाता है, इस दौरान उसको काफी मान व सम्मान का बोध कराया जाता है। ऐसे में पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं से उसको फजीलत खुद-ब-खुद हासिल हो जाती है। अगर दल सत्ता में आ जावे तो सिंहासन भी मिलना वजिब है। आप ही सोचिए जब दल बदलने पर इतना ईनाम व एकराम मिले तो नेता क्यों न दलबदलू होवे।

दलबदलूओ से आधुनिक राजनीति को आक्सीजन मिल रहा है। अगर ये खत्म हो गये तो कितनों के राजनीति संकट आ जायेगा। इनके ना रहने से छोटे सियासी दलों के साथ बड़े दलों को भी सरकार बनाने में दिक्कत व मशक्कत का सामना करना पड़ेगा। बेहद पवित्र व मुफीद है दलबदलू चरित्र। मैं तो साफ कहता हूं जनबा! दल बदलन के कारने नेता धरा शरीर।

email- mafsarpathan@gmail.com

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