Tuesday, March 1, 2011

जद्दो-जेहद

बीमार बुनकारी, बदहाल बुनकर


अब कहाँ मुनाफा रहा

हिन्दुस्तान की कदीमी हथकरघा बुनाई विलुप्त होती जा रही है। जिसकी वजह से विश्व में अपनी खास पहचान रखने वाली बनारसी साड़ी के वजूद पर खतरा मण्डराने लगा है, साथ में इस ताना-बाना के सहारे जिन्दगी गुजर करने वाले बुनकर भी बदहाली, मुफलिसी और बेकारी भरी जिन्दगी गुजारने पर मजबूर हैं। अगर बुनकारी व्यवसाय पर नजर डालें तो मालूम होता है कि एक करघा पर बुनाई की खातिर पूरा-पूरा परिवार 4-6 लोग लगे रहते हैं। चाहे वह करघा पर धागा चढ़ाना हो, नारी भरना हो, धागे पर रंगाई या सुखाई का काम हो या फिर माडी करना हो। हर रोज 8-10 घण्टा मेहनत करने के बाद 10-12 मीटर कपड़ा बुना जाता है जिसकी मजदूरी पांच रूपये मीटर के हिसाब से 50-60 रूपये के बीच होती है। यहां अगर बनारसी साड़ी की बात करे तो एक मीटर तक एक दिन में बुनाई हो पाती है जिसकी मजदूरी 80-100 रूपये है। हफते में पांच दिन व महीने में 20 या 25 दिन काम मिल पाता है वह भी साहूकारों के खपत होने पर। इस तरह एक बुनकर परिवार की कुल सालाना आमदनी लगभग 12 से 18 हजार रूपये के बीच हो पाती है। इसी आमदनी में बुनकरों के पूरे साल का खर्च, बच्चों की परवरिश, पढ़ाई व शादी-विवाह का भी बोझ उठाना पड़ता है। यही खास वजह है कि बुनकरों के बच्चे अच्छी तालीम व तरबियत से महरूम रह जाते हैं, सिर्फ मजहबी शिक्षा या सरकारी पाठशालों में दोपहर का खाना खाकर इनके बच्चे साक्षरों की लिस्ट में अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं। उच्च शिक्षा या अच्छे विद्ययालयों में पढ़ने के लिए आमदनी ही बाधा बनती है। जरा विचार करें कि जिस समाज में शिक्षा का आभाव हाक वह कैसे विकास कर पायेगा।

बात अगर उत्तर प्रदेश की करे तो बुनकारी का यहां गरीब मुसलमानों व दलितों का मुख्य पेशा है। हथकरघा निदेशालय की रिपोर्ट मार्च 2009 पर गौर फरमायें तो उत्तर प्रदेश में 1978 कार्यरत हथकरघा समितियां एवं 665348 हथकरघा बुनकर पंजीकृत हैं अब तायदाद ज्यादा हो सकती है। इस तरह व्यक्तिगत बुनकरों को शामिल कर के कहा जा सकता है कि प्रदेश में तकरीबन दस लाख से ज्यादा लोग इस व्यवसाय से जुड़े हैं। बुनकर बाहुल्य क्षेत्रों में बनारस, मउ, गोरखपुर, इलाहाबाद, कानपुर, आजमगढ़, झांसी, अलीगढ़, मुरादाबाद, इटावा, उन्नाव, हरदोई, सीतापुर, बाराबंकी आदि जिले प्रमुख हैं। तमाम चिल्लपों के बावजूद बुनकरों की माली हालत जस की तस बनी है। केन्द्र व राज्य सरकार की तरफ से जो भी योजनाएं या मद्द जारी की जाती है हकीकतन वह बुनकर समुदाय के लम्बरदारों तक ही सिमट कर रह जाती है। जिसकी प्रमुख वजह यह है कि सरकारी पालीसी के हिसाब से उन्ही बुनकरों को इमदाद मुहयया कराया जाता है जो किसी पंजीकृत संस्था या नोडल एजेंसी से जुड़े होते हैं। व्यक्तिगत बुनकरों को नाममात्र की सुविधायें उपलब्ध कराई जा रही है। इसी वजह से सरकारी लाभ संस्थाओं के अध्यक्ष हजम कर जाते हैं और डकार तक नहीं लेते। ऐसे हालत में सरकारी योजनाएं अपने मकसद में नाकामयाब हो जाती हैं।


हालात जो करा दे

पूरे विश्व में अपनी अग पहचान रखने वाली बनारसी साड़ी धर्म की नगरी की खास पहचान है तो अम्बेडकर नगर के टाण्डा का अराफाती रूमाल या जमदानी वस्त्र, गोरखपुर की बेडसीट या खैराबाद सीतापुर की दरी कालीन, हथकरघा बुनाई की उत्कृष्ट पहचान है। मगर कभी हाथों से बुने जाने वाले कपड़ों का कारोबार अब आधुनिक मशीनों ने ले लिया है, जिसमें पावरलूम व चाइनीज मशीनें भी हैं। बात अगर बनारस की करें तो यहां बनारसी साड़ी के साथ कपड़ों की भी बुनाई की जाती है। मदनपुरा, काशीपुरा, खालिशपुरा, लल्लापुरा, बड़ीबाजार, सोनारपुरा, लोहता, बड़ागांव, रामनगर, पिण्डरा आदि जगहों पर बुनकारी का काम होता है। शमीम अख्तर निवासी खलिशपुरा बताते हैं कि ‘‘एक पटोल साड़ी बनाने में 5-7 दिन लगता है, जिसकी मजदूरी रोजाना के हिसाब से 80-100 रूपये तक आती है। इससे तो महंगाई के इस दौर में परिवार पालना मुश्किल हो जा रहा है। अगर शादी-विवाह पड़ जावे तो कर्जा लेना पड़ता है, बस किसी तरह जी रहे हैं हम लोग। कितनों ने तो बुनकार बन्द कर दिया है।’’ हाजी मुग्नी 80 कहते हैं ‘‘ बुनाई कारोबार माग पर निर्भर है, मन्दी के दौर मे विदेशों में मांग घटी है, जिस वजह से खपत कम हो पा रही है। बिजली व कच्चे माल की किल्लत मत पूछिए। युवाओं का मिजाज बदला है वे अब दूसरे व्यवसाय की तरफ पलायन कर रहे हैं। आप खुद सोच सकते हैं कि पहले जहां बनारस में पांच लाख करघा पर बुनाई का काम होता था, वहीं अब घट कर यह आंकड़ा साठ हजार पर आ गया है।’’ बदलते वक्त ने बनकरों के साथ काफी मजाक किया है, उपर से सरकारी उपेक्षा इस कारोबार के लिए ताबूत की आखीरी कील साबित हुई है।

मेयर बनारस कौशलेन्द्र सिंह

मेयर बनारस कौशलेन्द्र सिंह कहते हैं ‘‘ बुनकरों की बदहाली के लिऐ मूलभूत सुविधाओं का न मिल पाना व समय के साथ तकनीकी अपग्रेड का न हो पाना प्रमुख कारण है। इसके लिए केन्द्र व राज्य सरकार को प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है। जहां तक मेरी बात है तो नगर निगम की तरफ से हर उपलब्ध सुविधा इनको दी जा रही है। अगर सरकारे न चेतीं तो मुल्क की अमूल्य पहचान बनारसी साड़ी को खोने का खतरा है।’’

रोजगार को तलाशती निगाहें

दौर के हिसाब से बंनकारी के पेशा सिर्फ घाटे का सौदा रह गया है, बेनकरों की माली हातल इतना खराब है कि फांकाकसी तक का नौबत आ गया है। सरकार द्वारा किया गया प्रयास नाकाफी साबित हो रहा है। वजह, सरकारी सुविधाएं सिर्फ चन्द लम्बरदारों और साहूकारों के चहारदीवारी तक सिमट कर रह जाती है। अगर इस हथकरघा दस्तगीरी को जिन्दा रखना है तो सरकार को बुनकरों को काम मुहैया कराने के लिए पुनर्वित्त कार्ययोजना लागू करना होगा जिससे कि प्रदेश के तकरीबन दस लाख बुनकरों की माली हालत सुधर पावे तथा दुबारा हथकरघा व्यवसाय को नई जिन्दगी मिल सके। तभी जाकर बनारसी साड़ी की कदीम पहचान बच सकेगी और सूफी सन्त कबीरदास का ताना-बाना बिखरने से बच पायेगा।


बुनकारी करने वाले चले खाड़ी

काम के मारे बुनकर बेचारे

कपड़ा इन्सान की अहम जरूरतों में से एक है। मुल्क में कृषि के बाद दूसरे नम्बर पर कपड़ा उद्योग का नाम आता है बावजूद इसके इस दस्तकारी के दस्तकार आज खुद को इससे अलग हो रहे हैं। प्राचीन समय में भारत का मलमल, छींट और रूमाल वगैरह अरब मुल्कों में काफी मकबूल था। बुनाई का काम साधारण करघा डाबी व जैकार्ड व पावरलूम पर होता है। एक वक्त था कि मुल्क के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मउ शहर को मुल्क का मैनचेस्टर की संज्ञा दी थी मगर हालात अब काफी बदल चुके हैं। बुनकारी व बुनकर दोनों की हालत पस्त हो चुकी है, जिस वजह से इस व्यवसाय से जुड़े लोग पलायन पर मजबूर हैं। नौजवान अब इसमें आना नहीं चाहते सो बोझ बुजूर्गों के कमजोर कन्धों पर है। परम्परागत डिजाइनों में आधुनिक तकनीकी का आभाव, बिजली की मार, फैशन की दौड़ ने बुनकारी या साड़ी व्यवसाय पर काफी विपरीत असर डाला है। यही वजह है कि बुनकारी व्यवसाय से जुड़े लोगों में खाड़ी मुल्कों की ओर पलायन का रूझान बढ़ा है। कारण वहां हुनर न रहने के बावजूद किसी न किसी रूप में रोजगार की गारांटी है, फिर विदेशी मुद्रा भी परिवर्तित हो कर अच्छी खासी रकम बन जाती है। 35 साल के नाजिम का कहना है कि साड़ी के धन्धे में अब कुछ रहा नहीं सो इसे छोड़ कर निकल जाना ही बेहतर है, यही वक्त की नजाकत भी है। यहां पर कुछ हासिल होने वाला भी नहीं है। अब्बू का फरमान है ‘ अब हिहां रहे से त ना कुछ होवे वाल है, सउदिये जाके कुछ होवे वाला है।’ बुनकरों में विदेश जाने का होड मची है। बनारस, मउ, आजमगढ जिलों में पासपोर्ट के लिए युवाओं में काफी जददो जेहद मची है। हर साल इन जिलों में तकरीबन 8-10 हजार लोग पासपोर्ट की खातिर आवेदन कर रहे हैं। आखिर लोग क्यों नहीं पलायन करें, जब पेट भरपाना और मुलभूत जरूरतें पूरा कर पाना जहां मुश्किल हो। यही वजह है कि बनारसी साड़ी और बुनकारी करने वाले खाडी मुल्कों का रूख कर रहे हैं।

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