Saturday, February 19, 2011

सामाजिक सदभाव

कौमी इकज़हती के प्रतीक लतीफशाह बाबा


  • एम अफसर खान सागर



विंध्य पर्वत माला की सुरम्य वादियों में स्थित है चन्दौली जनपद की पुरानी तहसील चकिया। चकिया को सिंचित करने वाली कर्मनाशा नदी के तट पर स्थित है सांस्कृतिक व एतिहासिकता को समेटे सूफीवाद के महान सन्त लतीफशाह बाबा की मजार। मध्यकालीन भारत में मुस्लिम कट्टरवाद के कारण पैदा हुई सामाजिक तथा धार्मिक विसंगतियों के बीच सूफी परम्परा ने समाज में सद्भाव, प्रेम, दया और सहिष्णुता की एक परम्परा कायम की, जिसने भेद-भाव, जाति तथा धार्मिक आडम्बरों के परम्परागत रूढ़िवादी प्रतिमानों पर जोरदार कुठाराघात किया। लतीफशाह बाबा भी उसी परम्परा के महान सन्त थें जिनके नाम की चमक वाराणसी मण्डल के साथ-साथ दूर-दूर तक प्रकाशमान है।
काशी नरेश के दस्तावेजों के अनुसार बाबा का पूरा नाम सैयद अब्दुल लतीफशाह बर्री था। इनका जन्म ईरान (तत्कालीन फारस) के बर्री शहर के किसी गांव में हुआ था। आप बचपन में ही निराकार ब्रह्म के तलाष में सन्यासी बन गये। बादशाह अकबर के शासनकाल में कट्टरपंथ से परहेज कर एक नयी पराम्परा के उद्भव की बात सुनकर आप भारत आये तथा अजमेर में ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिष्ती के दरगाह के तत्कालीन गद्दीनशीन की सलाह पर काशी चले आये। सामाजिक सौहार्द, प्रेम, समरसता तथा पांखंड के प्रति उनके विचारों ने शिष्यों की एक बड़ी जमात तैयार कर दी। बाद में आप कर्मनाशा नदी के किनारे आ कर रहने लगे तथा यहीं से लोगों को प्रेम और सद्भाव के साथ-साथ ईश्वर के निर्गुण प्रतिमान के बाबत सन्देश देना शुरू किया।
एक प्रचलित दंत कथा के अनुसार कौडिहार ग्राम के पास कर्मनाशा नदी के किनारे लतीफशाह बाबा के आगमन से पूर्व वहां पर बाबा बनवारी दास नामक बड़े तपस्वी व विद्वान सन्त रहा करते थे। आपके आजाने से अब दोनों सन्त साथ-साथ हिन्दु-मुस्लिम एकता का सन्देश देने लगे। दोनों सन्त लगातार काफी दिनों तक लोगों को सामाजिक सद्भाव व मानवीय प्रेम का सन्देश देते रहे परन्तु एक दिन बाबा बनवारी दास के मन में श्रेष्ठता की भावना पनपी तथा वे कहने लगे कि मैं लतीफशाह बाबा से बड़ा संत हूं। कहते हैं कि अहं की भावना व्यक्ति को हमेषा गर्त में ले जाती है, हुआ भी ऐसा ही बाबा ने बनवारी दास जी की चुनौती स्वीकार की तथा कर्मनाशा नदी की उफनती धारा में पानी पर पैदल चलने की शर्त रखी। अब दोनों संत शर्त के मुताबिक पानी पर चलने लगे अचानक बनवारी दास पानी के अन्दर चले गये जबकि लतीफशाह बाबा पानी के उपर चलकर नदी पार की, इस प्रकार बनवारी दास ने बाबा की श्रेष्ठता को स्वीकार किया तथा बाब की कुटिया के नीचे अपनी कुटिया बनाकर रहने लगे। लतीफशाह बाबा के देहावसान होने पर उनके षिष्यों ने उनकी कच्ची मजार बना कर पूजा-अर्चना करने लगे। बाद में पुर्वर्ती काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने सन् 1793 में लतीफषाह की मजार को पक्की बनवाया। ऐसा माना जाता है कि किसी नदी के किनारे यह पहली पक्की मजार है। किवंदतियों के अनुसार मजार निर्माण के समय ही लतीफशाह मेले की परम्परा भी उदित नारायण ने ही डाली थी जो आज भी बदस्तूर जारी है।
चकिया तहसील स्थित लतीफशाह बाबा की मजार गंगा-जमुनी तहजीब की जीती-जागती मिसाल है। राम-रहीम की भारतीय पराम्परा का जीवंत उदाहरण को अपने आगोश में समेटे बाबा की मजार पर हिन्दुओं की श्रद्धा मुसलमानों से कम नहीं है। अशफाक अहमद 70 बताते हैं कि ‘बाब की मजार तकरीबन पांच सौ साल पुरानी है जिसकी स्थापना काशी नरेश उदित नारायण सिंह जूदेव के पिता ने करायी थी तथा इसका पक्का निर्माण उदित नारायण सिंह ने करवाया था ऐसा माना जता है।’ लतीफशाह बाबा की मजार पर प्रति वर्ष तीन दिवसीय मेले (उर्स) का आयेजन होता है। सांसकृतिक, एतिहासिक और हिन्दु-मुस्लिम सद्भाव का प्रतीक यह मेला बाबा के मानने वालों के लिए काफी मायने रखता है। दूर-दूर से लोग अपनी मन्नते पूरा करने के लिए बाबा की मजार पर आते हैं तथा उनकी मुरादें पूरी भी होती हैं। शिक्षक सत्यनारायण सिंह ‘संत’ बताते हैं कि ‘तीन दिवसीय मेले की खासियत यह है कि हिन्दुओं के पवित्र पर्व हरितालिका तीज के तीसरे दिन व भगवान श्री कृष्ण के जन्माश्टमी के बारहवें दिन मेला लगता है।’ लोगों का कहना है कि आजादी के पहले तक काषी नरेष स्वयं हाथी पर सवार होकर बाबा की मजार पर मेले के पहले दिन चादर चढ़ाने आते थें।
लतीफशाह बाबा के दरबार व मेले में हजारों लोगों की भीड़ उमडती है तथा लोग झाड़ीयों, पहाड़ियों में खाना बनाते हैं। यही नहीं रात में लोग पहाड़ियों पर निवास भी करते हैं। भादो माह की अन्धेरी रात व बरसात के दिनों में जबकि जंगलों में जंगली जानवरों और सांप-बिच्छुओं का निकलना आम बात है मगर सैकड़ों वर्ष में कभी भी किसी हिंसक जावनर या सांप-बिच्छु द्वारा किसी के डसने की घटना नहीं घटी। बाबा के दरबार में सब पर रहम बरसता है तथा निष्पाप दिल से अगर कोई बाबा को याद करता है तो उसकी मुराद जरूर पूरी होती है। इसीलिए लोग जाति-धर्म से उपर उठ कर बाबा के दरबार में अपनी मन्नतें लेकर आते हैं तथा बाबा उनको कभी भी खाली हाथ नहीं लौटाते।



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