- एम अफसर खान सागर
खण्डहर सिर्फ खण्डहर नहीं होते
बेशकीमती खजाना छुपाये रहते हैं अपने दिलों में
चुप रहते हैं तो सदियों तक चुप रहते हैं
पर जब चुप्पी टूटती है
तो कई नालन्दा, कई तक्षशिला जीवित हो उठते हैं।
उत्तर प्रदेश के वाराणसी से 55 किमी0 पूरब की तरफ महाईच परगना के धानापुर ब्लाक में स्थित हेतमपुर चन्दौली जिला मुख्यालय से लगभग 30 किमी0 दूरी पर है । चन्दौली जनपद भले ही नक्सलवादी गतिविधियों के लिए पहचाना जाता हो मगर यहाँ पर अनेक प्रकार के ऐतिहासिक व प्राकुतिक सम्पदायें मौजूद हैं।
ऐतिहासिक परिदृष्य में देखा जाए तो हेतमपुर प्राचीन इस्लामी सभ्यता का अवशेष है जो कि अब पूरी तरह से जमींदोज़ होने के कगार पर है। हेतमपुर का किला लग-भग २.18 एकड़ में स्थित है। इसके निर्माण की तिथि के बारे में कोई ठोस ऐतिहासिक साक्ष्य लग-भग नहीं के बराबर है मगर इसके निर्माण की कला से यह अन्दाज लगाया जा सकता है कि यह मुस्लिम युग में निर्मित किया गया है। जनश्रुति व बुजुर्गों के अनुसार यह किला हेतम खाँ द्वारा बनवाया गया जो कि तत्कालीन समय का बड़ा जमीदार था और उसी के नाम पर गाँव का भी नाम था। हेतम खाँ गाजीपुर के सम्पन्न जमीदारों में था तथा महाईच परगना के कुछ गाँवों समेत गंगापार की जमीन भी उसकी जागीर थी। डिस्ट्रिक गजेटियर वाराणसी के अनुसार हेतम खाँ इस क्षेत्र का राजा था। हेतमपुर के किले की चौहद्दी देखा जाए तो - पूरब में इकबालपुर, पष्चिम में गौसपुर , उत्तर में खड़ान तथा दक्षिण में नौरंगाबाद स्थित है। किले के निर्माण के समय इस बात का बेहद ध्यान दिया गया था कि किला अभेद व पूर्ण रूप से सुरक्षित रहे इसलिए किले केे चारों तरफ गहरा खन्दक कर इसकी मिट्टी से गढ़िया बनाकर आयताकार में इस विषाल किला का निमार्ण कराया गया। मुख्य रूप से हेतमपुर के किले को हम पाँच भागों में बाँट सकते हैं-
1 भुलैनी कोट,
2 बिचली कोट,
3 भीतरी कोट,
4 उत्तरी कोट,
5 दक्षिणी कोट
कोट शब्द का प्रयोग इस लिए किया गया है कि किले का अस्तित्व समाप्ति की तरफ है तथा स्थानीय लोग किले को हेतम खाँ के कोट के नाम से जानते हैं।
भुलैनी कोट:- किले की पूर्वी दीवाल में उत्तर दिषा की तरफ चार मन्जिल वाली विषाल इमारत है। इस इमारत में पूरब दिषा में खुला तीस फुट उँचा किले का मुख्य दरवाजा है। इमारत के बाहर (पूरब) इमारत से देखने पर हेतम खाँ की सुरक्षा व्यवस्था की मजबूती को आंका जा सकता है। चारों मन्जिलों से सामने पूरब की तरफ दुष्मनों का सामना करने के लिए 34 छोटे-बड़े मोरचे के कंगूरों का निर्माण है। सम्भवतः इन कंगूरों से बन्दूकधारी,तोपची व तीरंदाज किसी प्रकार के हमलों का सामना करने के लिए मोरचा बनाते रहे होंगे। किले के अन्दर घुसने पर दोनों तरफ बड़े-बड़े बरामदे हैं। इन बरामदों की छत नीची है। इन बरामदों में घोड़े व हाथी बाधे जाते थे क्योंकि इनमें बड़े-छोटे कई हौद हैं। स्थानीय नागरिक संजय यादव बताते हैं कि बुजुर्ग कहा करते थें कि दरवाजे के बायें तरफ की गिरी छत के कारण वह मुख्य सुरंग भी बन्द हो गया जिससे भूमिगत मार्ग से चुनार, जमानियाँ, धानापुर एवं कमालपुर तक पहुँचा जा सकता था। सुरंग मोटी दीवाल में बनी आलमारी के पार्ष्व में इस प्रकार स्थित थी कि आम आदमी कुछ समझ न पाये, अगर वह सुरंग में चला भी जाए तो भ्रामक रास्तों में उलझ कर भटक जाए। किले के विषाल परिसर में बाहरी दीवार में जमीन से सटा एक बड़ा ताखा दिखाई देता है। इसी ताखे में झुककर प्रवेष करने पर दीवार के ही उत्तर में उपर की ओर बढ़ती हुई एक सीढ़ी मिलती है। इसी सीढ़ी से भूलैनी कोट की उपरी मंजिल पर जाया जाता है तथा बीच में दाहिनी तरफ या बायें बने ताखों व आलमारीयों से रास्ते बदल-बदल ही उपर पहुँचा जाता है। इसी भुल-भुलैया के कारण इस इमारत को भुलैनी कोट के नाम से जाना जाता है। भुलैनी कोट में हर मंजिल पर (पूरब) सामनेकी तरफ दोनों दरवाजे के दोनों छोर के समानान्तर दो-दो तोपें लगी रहती थीं तथा दर्जनों सैनिक हथियारों से लैस पहरा देते थें।
बिचली कोट:- किले के दक्षिण-मध्य में स्थित यह इमारत (कोट) पूरे किले की मुख्य इमारत है। इमारत का मुख उत्तर दिषा की तरफ है। भुलैनी कोट (इमारत) से किले के मैदान में प्रवेष करने पर दक्षिण दिषा में सामने की तरफ बिचली कोट (इमारत) दिखायी देती है। तीन मंजिले इस इमारत में वास्तुकला का उत्कर्ष देखा जा सकता है। इमारत के निर्माण में ईंट का उपयोग आंषिक रूप से हुआ है। चुनार या कैमूर की पहाड़ियों के बलुए धुसरी पत्थर से बना है। यह इमारत पूरे किले से पाँच फिट उँची है अपर गढ़िया पर बनी है। छः अठपहले पटादार व नक्काषीदार खम्भों पर टिके विषाल बरामदे के तीनों तरफ बड़े-बड़े कमरे हैं। कमरे के द्वार बरामदे में खुले हैं। बरामदे में प्रवेष करने पर दायें कमरे में पीछे की तरफ पष्चिम से जमीन के अन्दर भीतरी कोट (इमारत) में जाने हेतु सीढ़ी बनी है लेकिन वर्तमान में उक्त सीढ़ी बन्द कर दिया गया है। दूसरी मंजिल पर भी पहले तल की ही तरह खम्भे, बरामदे व कमरे हैं लेकिन अब एक पूर्वी व दो पष्चिमी कक्ष बचे हैं। तीसरी मंजिल पर मात्र एक छोटा कमरा बचा है स्थानीय संजय यादव ने बताया कि महारानी इस कमरे का प्रयोग रसोई के लिए करती थीं। इमारत के पष्चिमी-उत्तरी कोने पर छोटे दरवाजे से सीढ़ी पर चढ़ा जाता है। बिचली कोट (इमारत) में सृजित नक्काषीदार ताखों, रोषनदानों को उत्कृष्ट षिल्पकारिता के उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। पूरी इमारत में पाँच दर्जन उच्च कोटि की आलमारीयां हैं। निचला, मध्य तथा उपरी कुल तिहरी भित्तियों में अलग-अलग प्रकार की नक्काषी हुई है जिसमें सुराही, फूल-पत्ते व तरह-तरह के बारीक बेल-बूटे उभरे हैं। उच्चस्तरीय नक्काषी वाल 35 निगिष्ते व 21 दरवाजे फ्रेम सहित अनेक बड़ेरियां मौजूद हैं। उपरी मंजिल की दीवारों में बड़े-बड़े जंगले भी हैं।
भीतरी कोट:- यह कोट (इमारत) बिचली कोट के ठीक नीचे जमीन के अन्दर है। इसमें जाने के लिए सभी रास्ते बन्द हो चुके हैं फिर भी इसके अन्दर टहल चुके कुछ स्थानीय नागरिकीें ने बताया कि बिचली कोट (इमारत) की भाति भीतरी कोट (इमारत) में भी भवन है। स्थानीय राजेश ने बताया कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी केदारनाथ उपाध्याय से सुना था कि वे मषाल के सहारे कोट (इमारत) के अन्दर अपने मित्रों के साथ घूसे थे तथा कोट (इमारत) के अन्दर तीन मंजिल व एक इमारत है इनके पूर्वी छोर के कमरों में लगभग 25-25 किलो0 के ताले लगे थें इनका अनुमान था कि इन कमरों में भारी मात्रा में धन-दौलत व हथियार होंगे। भीतरी कोट (इमारत) से किले के चारों दिषाओं में सुरंग बाहर की तरफ निकले हैं। बताया जाता है कि भीतरी कोट (इमारत) को बनवाने में सर्वाधिक समय लगा था। कोट (इमारत) की पहली मंजिल में प्रवेष के लिए बिचली कोट के चारों तरफ जमीन के पास कुल 12 रोशनदान खुले थें परन्तु वर्तमान समय में ये सभी बन्द हो चुके हैं।
उत्तरी कोट:- यह दो मंजिला कोट (इमारत) किले के उत्तर की तरफ स्थित है। काफी क्षतिग्रस्त होने के कारण इस कोट (इमारत) के बारे में बहुत कुछ लिख पाना मुष्किल है। इसकी स्थिति व अवषेषों के देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि यह सैनिकों के आराम के लिए बनवाया गया था। इसकी बनावट भुलैनी कोट (इमारत) से कुछ छोटा है। इस कोट (इमारत) में छोटा दरवाजा उत्तर की तरफ था। दरवाजे के सामने लगभग 2.5 एकड़ में स्थित गहरा तालाब है।
दक्षिणी कोट:- यह कोट (इमारत) किले के दक्षिण-पष्चिम कोने में है। इसी कोट में हेतम खाँ ने मथारूद्र (ब्राह्यण) व एक मुसलमान धोबी को चुनवा दिया था। आज भी कोट के भीतरी हिस्से में ब्रह्य बाबा की पूजा होती है। इस दो मंजिल इमारत के मध्य कुआँ था जिससे पूरे किले में पानी की आपूर्ति होती थी। इसी कोट में उत्तरी कक्ष से एक चौड़ा रास्ता किले की चहारदीवारी पर जाता था इसी मार्ग से सैनिक आपने घोड़ों व तोपों के साथ किले की चहारदीवारी पर चढ़ते थे। इसी कोट के बाहरी (दक्षिणी-पष्चिमी) छोर पर छोटे-छोटे दो दरवाजे थें इन दरवाजों के भीतर जाने वाला मार्ग इतना भ्रामक था कि थोड़ा सा चूक भी अनभिज्ञ व्यकित् को अन्धेरे कुऐं में गिरा सकता था परन्तु अब कुआँ बन्द हो चुका है।
किले की चाहरदीवारी - इन पाँच मुख्य भागों के अलावा किले की 6 फुट चौड़ी व 25 फुट उँची चहारदीवारी खास आकर्शण की चीज है। चहारदीवारी सुर्ख चुने से ईंट जोड़कर बनी है। ईंटों का आकार 8 ईंच वर्गाकार है। किले की चहारदीवारी पर घुड़सवार दर्जनों सैनिक चौबीसों घन्टा गष्त किया करते थें। चहारदीवारी में एक-एक मीटर पर मोर्चे के कँगुरे बने हुए हैं तथा बीच-बीच में दर्जनों तोपों के खाली स्थान बने हैं, सम्भवतः चार दर्जन तोपें चहारदीवारी पर हमेशा तैनात रहती थीं। चहारदीवारी के बुर्ज और गुरजों से इसकी भव्यता और मजबूती का अन्दाज़ लगाया जा सकता है।
वर्तमान समय में हेतम खाँ का किला राजाओं के मिटते इतिहास के साथ मिटने के मुहाने पर खड़ा है। दषकों पूर्व ग्रामीणों ने किले की अधिकांष जमीन पर कब्जा जमा लिया है। ग्रामीणों द्वारा किला परिसर का उपयोग खलिहान के रूप में किया जा रहा है तथा स्थानीय लोग किले में उपले बनाने का कार्य कर रहे हैं। किले की विषाल परिसर स्थानी युवकों के लिए खेल मैदान का कार्य कर रहा है। किले के भीतरी कोट में धन व हथियार होने की सम्भावना से सन् 1942 में कुछ लोगों ने किले की खुदाई का प्रयास किया था कई दिन व रात खुदाई कर भी उन्हे कुछ हासिल नहीं हुआ और ग्रामीणों ने उन्हे भगा दिया। इसी प्रकार सन् 1975 में पुरातत्व विभाग के दर्जनों कर्मचारियों और अधिकारी किले की निरीक्षण हेतु हेतमपुर आये परन्तु गाँव वासीयों द्वारा फैलाये गये इस अफवाह से कि जो इसकी खुदाई करता है मुसीबतों में पड़ जाता है व अचानक अधिकांष के बीमार होने के कारण वापस चले गये। ऐसा माना जाता है कि भारत के स्तरीय कुछ किलों में हेतम खाँ के किले की गणना हो सकती बषर्ते कि इसका विस्तृत पुरातात्विक अध्ययन हो। वैसे वाराणसी समेत आस-पास के मण्डलों में हेतम खाँ के किले के समान कोई किला नहीं है।
We, the descendants of Hetam Khan, are now settled in village Mania, district Ghazipur (UP).
ReplyDeleteबहुत सुंदर जानकारी एम.अफसर खान
ReplyDeleteलगे रहिए