Thursday, February 17, 2011

इतिहास

सैदपुर भीतरी: गौरवशाली इतिहास का अवशेष

  • एम अफसर खान सागर

वाराणसी से 49 किलोमीटर पूरब गाजीपुर जनपद का भीतरी गांव गुप्तकाल के स्वर्णिम इतिहास का गवाह है। शासन के प्रारम्भिक दिनों में ही गुप्त शासक स्कन्दगुप्त को विदेषी आक्रमणकारियों, खासकर हुणों का सामना करना पड़ा था। जैसा कि जूनागढ़ अभिलेख मेंम्लेच्छऔरचन्द्रगर्भ परिपृच्छके विदेशी आक्रमणों का उल्लेख है। हुणों को परास्त कर स्कन्दगुप्त ने गाजीपुर के सैदपुर भीतरी में विजय-स्तभ का निर्माण करवाया, जो स्कन्दगुप्त के हुणों पर विजय का गवाह है।

गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी सदी के अन्त में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ था, इसलिए इसका मुख्य कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश बिहार था। जिसमें उत्तर प्रदेश प्रमुख है क्योंकि गुप्तकाल के अधिकांश अभिलेख यहीं मिले हैं। स्कन्दगुप्त के शासन के प्रारम्भिक दिनों में ही हुणों ने आक्रमण कर दिया, जो गुप्त साम्राज्य के लिए चुनौती का विषय बन गया, मगर स्कन्दगुप्त ने इसका बहादुरी से सामना किया और मध्य एशिया से आये हुणों को हराकर इतिहास में अपना नाम अंकित कराया। गाजीपुर गजेटियर के अनुसार ‘‘सम्राट स्कन्दगुप्त ने मध्य एशिया के हुणों को परास्त करने के उपरान्त सैदपुर भीतरी स्थित विजय-स्तम्भ का निर्माण करवाया था।’’



स्तम्भ की बनावट से पता चलता है कि यह कभी किले के अन्दर रहा होगा मगर वर्तमान में किले के ढह जाने के कारण खुले आकाश में स्थित है जिसका जीर्णोद्धार पुरातत्व विभाग तथा वन विभाग के सौजन्य से हो रहा है। खुदाई में प्राप्त किले के भग्नावशेषों से पता चलता है कि किला लाल ईंटों से निर्मित था। भूगर्भ स्थित एक विषाल कक्ष था जिसमें सेना और कुछ स्थानीय प्रशासक रहा करते थें। खुदाई के दौरान यहां से बुद्ध की प्राचीन प्रस्तर-मूर्ति तथा धातु की मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं जिससे कि गुप्तकाल का पता चलता है। किला भी विजय के उपलक्ष्य में बनवाया गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि यहां से गुप्त प्रशासन की गतिविधियों का संचालन होता रहा होगा। यहां से राजस्व वसूली शासन का अन्य काम किया जाता रहा होगा। इतिहासकार डॉ0 जयराम सिंह का मानना है कि ‘‘गुप्तकाल में भीतरी स्थित स्कन्दगुप्त का यह किला राजस्व वसूली-केन्द्र के रूप में स्थापित था जहां से इलाके की राजस्व वसूली शासन का अन्य काम संचालित होता था।’’

खुदाई में प्राप्त धातु की मुद्राओं पर इन शासकों के क्रिया-कलापों का विस्तृत विवरण नहीं है मगर इन धातु-मुद्राओं में स्कन्दगुप्त के बाद के शासकों पुरुगुप्त, कुमारगुप्त का स्पश्ट उल्लेख मिलता है। ईंट गढ़िया से तैयार किला अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध रहा होगा, इसकी बनावट से ऐसा प्रतीत होता है। पत्थर की बौद्ध मूर्ति यह सिद्ध करती हे कि गुप्तकाल में बौद्ध धर्म के मानने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थी।

भीतरी स्थित स्कन्दगुप्त का विजय-स्तम्भ खुरदरी लाल पत्थर से बना था, जिसकी उंचाई 28 फिट तथा जमीन के ऊपर 10 फिट तक का भाग वर्गाकार तथा शेष भाग वृत्ताकार है। इसकी ऊपरी हिस्सा घण्टानुमा है जिसपर विकसित कमल की अधोमुखि पंखुड़ियॉं अंकित हैं। इस वृत्ताकार स्तम्भ के ऊपर एक गोलाकार चौकी पर एक सिंह की आकृति बनी थी जिसका वर्तमान समय में शेष नहीं है। स्तम्भ के नीचे अंकित शिलालेख अब समाप्तप्राय हो चुका है। इसकी बनावट से यह प्रतीत होता है कि यह स्तम्भ गुप्तकाल के स्थापत्यकला का सुन्दर नमूना है जो फिलवक्त काफी जीर्ण अवस्था में होने के कारण ठीक उसी प्रकार के पत्थर से उसकी आकृति को साकार करते हुए पुरातत्व विभाग के सौजन्य से पुनः निर्मित कराया गया है। गाजीपुर गजेटियर के अनुसार ‘‘यह प्रस्तर विजय-स्तम्भ गुप्तकालीन भारत के स्वर्णयुग की धरोहर है, जो कभी एक किले के अन्दर स्थित था। वर्तमान में किले के भग्नावषेष एवं भूगर्भ स्थित एक विशाल कक्ष को साकार करती ईंटों की खण्डित प्राचीर के पास खुले आकाश में खण्डित रूप में यह विद्यमान है।’’

किले के भग्नावशेष के पास ही एक घण्टाकार भवन था जो वर्तमान में लाल पत्थर से उसके आकार को साकार करते हुए बनवाया गया है। पास ही विजय लाट है जिसका ऊपरी हिस्सा पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त हो चुका है तथा इस समय जर्जर अवस्था में विद्यमान है। सरकार द्वारा किले के भग्नावशेष के पास लघु पार्क का निर्माण कराया गया है जहॉं पर्यटक घूमने आते हैं।



भीतरी स्थित स्कन्दगुप्त का विजय-स्तम्भ आज भले ही बदले वक्त के साथ इतिहास में दर्ज हो चुका है मगर भारत के तीसरी सदी के गौरवशाली इतिहास का गवाह यह स्तम्भ विदेशी आक्रमण को चकनाचूर करने का प्रत्यक्ष प्रमाण है जो जीवन की रेत पर चलकर स्कन्दगुप्त द्वारा बनाये गये कदमों के निशान हैं। गुप्तों का समय भले ही बहुत पहले बीत चुका मगर स्कन्दगुप्त द्वारा हुणों पर किया गया विजय आज भी उनके इस विजय-स्तम्भ के साथ जीवित है। स्तम्भ और किले का भग्नावशेष इतना जीर्ण है कि इसके बारे में कुछ ज्यादा लिख पाना सम्भव नहीं है लेकिन स्कन्दगुप्त के स्वर्णकाल को समझने के लिए यह काफी है।


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