पेट की आग से पस्त पत्थरकट
- एम अफसर खान सागर
आप फूलों से भी तलवों को बचाकर चलिए
हम तो कांटों से भी गुजरें हैं, गुजर जाऐंगे।
सूरज की पहली किरनों के निकलने के साथ ही हाथ में हथौड़ व छेनी लिए खटर-पटर की आवाज़ के साथ शुरू होती है पत्तथकटों की जिन्दगी। तमाम जद्दो-जेहद के बावजूद दो जून का निवाला जुटा पाना इनके लिए पहाड़ सा मुश्किल काम है। पच्चास सात का सुरेश हो या पच्चीस साल का नन्हकू इनकी सुबह दो वक्त के निवाले लिए शुरू होती है और शाम भी इसी मकसद में ढ़ल जाती है। यहां सवाल पापी पेट का है। कहावत है कि अगर इंसान के पास पेट ना हो जो किसी से भेट भी ना हो। सो ये लोग पत्थर से बने सामाज जैसे- सिल-बट्टा, जाता-चाकी, और ओखली साइकिल व खच्चरों पर लाद कर अल्सुबह अपने डेरा से सुदूर गांवों निकल जाते हैं ओर शाम ढ़लने के साथ ही चुल्हे की आग रोशन करने के लिए सामान इकठ्ठा कर वापस आ जाते हैं।
यह दास्तां है उत्तर प्रदेश के चन्दौली जनपद के धानापुर समेत पूरे प्रदेश में रहने वाले बंजारा जाति के संगतराश या पत्थरकटों की जो कंजर समुदाय से आते हैं। जो दो वक्त की रोटी की खातिर तमाम मुश्किलों का सामना करने के बावजूद कभी-कभी भूखे पेट सोने पर मजबूर हैं। धानापुर चौराहे पर सड़क के किनारे इनकी आबादी तकरीबन पच्चास से साठ की है। ये खुद को भले ही दलित बताते हो मगर गांव के ही दलित व मैला ढोने वालों की नजर में ये अछूते हैं, कारण साफ है इनकी मुफलिसी, गरीबी और बेचारगी। उत्तर प्रदेश के वाराणसी, गाजीपुर, बलिया, गोरखपुर, चंदौली, गोण्डा, बस्ती, महराजगंज आदि जनपदों में इन पत्थरकटों की हालत कमोबेश एक सी हैं। हां, कही ये शिकारी, कहीं भिखारी तो कहीं मदारी के शक्ल में नजर आयेंगे। पत्थरकट ऐसा जाति है जो आजादी के छः दशक बीत जाने के बाद भी सामाजिक, आर्थिक, शैकक्षिणक व राजौतिक रूप से काफी पिछड़ी हुई है।
इन पत्थरकटों का जीवन सिर्फ दो वक्त के रोटी तक ही सीमित है। ये लोग समाज व उसके विकास से पूरी तरह नावाकिफ हैं। भारत के विकास में बाधक पत्थरकट जाति बंजारों सा जीवन बिता कर बेमकसद दुनियां से कूच कर जाता है तथा समाज व सभ्यता की दुहाई देने वाले लोगों के पास इनके मातमपुर्सी के लिए भी जरा सा वक्त नहीं रहता है। अगर इन पत्थरकटों की जुबानी उनकी हकीकत जानने की कोशिश करें तो दिल तड़प उठे। पुश्तैनी धन्धे से उब चुकर मिठाई लाल 50 कहता है कि ’’साहब एक पत्थर डेरा पर लाकर सौ रूपया पड़ जाता है, पूरे दिन हथौड़ पीट कर उसमें एक जाता-चाकी बनता है। चार गांव साइकिल या खच्चर पर लाद के घूमने के बाद मिलता है सिर्फ 125 या 155 रूपया। 50 रूपया में का होगा, पेरवार पालें या खच्चर।’’ अगर देखें तो एक दैनिक मजदूर 100 से 120 रूपया पाता है और ये बेचारे 50 में जीवन गुजार लेतेे हैं। भला कैसे पालें परिवार, कैसे विकास करे पत्थरकट्टे? आजादी के साठ साल गुजर जाने के बाद भी इनकी हालत ज्यों की त्यों बनी हुई है। इनके पास एक धूर जमीन तक नहीं है कि मकान बना पायें। इस वजह से एक अदद छत से भी महरूम हैं ये पत्थरकट्टे। सुरेश 52 फरियाद की मुद्रा में कहता है कि ’’साहब! एक बार परधान ज़ी के यीहां गइल रहली जा, की जी. एस. बंजर में बसा देही हमहन के त उ कहलन की जमीन कहां बा।’’
जहां केन्द्र्र व प्रदेश सरकारें ग्रामीण भारत के ढांचागत विकास व गरीबों के कल्याण के लिए कटिबद्ध हैं, वहीं सुविधा व संसाधन के नाम पर इन पत्थरकटों के पास सिफर है। इन्हे क्या मालूम सार्वजनिक वितरण प्रणली? भारत निर्माण, सर्व शिक्षा अभियान, मनरेगा, इंदिरा आवास, कांशीराम आवास योजना जैसे सभी तरह के सरकारी लाभ से वंचित हैं। ये सामाजिक अधिकार का प्रमाण राशन कार्ड व राजनैतिक अधिकार का प्रमाण वोटर कार्ड दोनों से महरूम हैं। रामविलास 35 बताता है ’’साहब हमहन के यीहा रहत 25 साल बीत गईल न त राशन कारड मिलल न ही वोटवा के खातिर नामै पड़ल। हमहन त भारत के नागरिक भी ना बानी।’’ शिकक्षा के नाम पर इनके पास काफी पुराना फार्मूला है काला अक्षर भैंस बराबर वाला। रमेश 44 चिढ़ के कहता है कि पेट पालिन जा की पढ़ावल-लिखावल जा।
निवासके नाम पर झोपडी है तो शौचालय गायब, सोने के नाम पर खाट तक नहीं। नहाना तो दूर पीने के लिए साफ जल मिल जावे वही काफी। कीडे-मकोडों सा जीवन बिताने वाले ये पत्थरकटे समाज व सरकार से क्या उम्मीद लगायें। अन्धी व बहरी सरकारें इनके करूण क्रन्दन पर कब ध्यान देती हैं। विकास से अछूता यह समुदाय विकसित भारत के संकल्प को ठेंगा दिखाता नजर आ रहा है। क्या भुखा, नंगा, अशिकक्षित भारत विकसित बन पायेगा। शायद यही सवाल ये पत्थरकटे अपनी पथराई नजरों से पूछ रहे हैं।
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